दूरदर्शन पर “गोदान” पर आधारित गुलज़ार की टेलिफिल्म आ रही है। पंकज कपूर के किरदार का मृत्यु द्श्य है। श्रीमतीजी, पुत्र और मैं सभी देख रहे हैं। पर अविरल अश्रु बह रहे हैं मेरी आँखों से। जी नहीं, बंद कमरे में भला आंखों में किरकिरी कैसी? यह कोई नयी बात नहीँ है। टी.वी. हो या फिल्म, कोई पात्र दम तोड़ रहा हो या हो कोई भारी इमोशनल सीन, मेरे नेत्र फफकने में देर नहीं लगाते। मज़ा तब और आता है जब मैं अपनी माँ के साथ बैठा हूँ, तब दो जोड़ी आँखों से बहती गंगा जमुना का दृश्य भी देखा जा सकता है।

मैं अंदाज़ लगा सकता हूँ आप क्या सोच रहे हैं इस समय। हैं! पुरुष होकर रोता है? रोना तो मूलतः जनाना गुण है। भई क्या करें, “मर्द को दर्द नहीं होता” या “ब्यॉज़ डोंट क्राई” जैसे जुमले अपने लिये फिट नहीं बैठते। इतने वर्षों के अनुभव के बाद तो अब मेरी आँखें भावनाओं की गहराई नापने की कसौटी बन चुकी हैं। हर ऐरे गैरे दृश्य पर नहीं बहती ये धारा।

अब तो कोई ऐसा दृश्य शुरु हुआ नहीं कि पत्नी बार बार पलट पलट कर मेरे नैनों में झांक लेती हैं। मैं प्रयास करता हूँ कि टोंटी बंद रहे, गला ईमोशन से चोक हुआ जाता है, आखों का मर्तबान लबालब भरा, पर कोशिश जारी रहती है, हो सकता है दृश्य खत्म होने तक भाप बनकर उड़ जायें। पर 100 में से 90 मौकों पर ऐसा होता नहीं। पत्नी कनखियों से मेरे डबडबाते नैन देख कर मुस्करा भर देती हैं, ज्यों कहती हों कि चलो रो लो जी भर, मैंने नहीं देखा। पर म्युनिसिपल्टी की नलों की नाई सुष्क उनकी भली आँखों में नाराजगी साफ दर्ज होती है, “कभी दो आँसू मेरे लिये भी टपका लिया करो आर्यपुत्र!”