सरकारी विभागों में संदेशों की खास अहमियत है। हर साल का सरकारी बजट, काम करो न करो काम की नुमाईश करना ज़्यादा ज़रूरी है। हज़ारों योजनाओं के ज़िक्र आपको सरकारी बजट पर पनपते बिलबोर्ड, गाँव देहात में घरों और सरकारी अस्पतालों व स्कूलों की दीवारों और चिकने पृष्ठ वाली पत्रिकाओं में विज्ञापनों के द्वारा मिलेंगे। काम क्या हुआ, कितना हुआ इसकी दरियाफ्त अखबार भी तभी करते हैं जब उनको मिल रही सरकारी विज्ञापन और निविदाओं की संख्या कम हो रही हो। करेले पर नीम के रूप में संदेशों को रचने वाले भी महान होते हैं। पहले भी ज़िक्र कर चुका हूँ इनके बारे में। कोई नहीं सोचता कि पाठक श्रोता वर्ग कैसा है, सीधी सादी स्पष्ट होने के बजाव दुरूह, मुहावरेदार, क्लिष्ट हिन्दी का प्रयोग करते हैं मुये, जो अजकल के शब्दकोशों में भी नहीं फटकती। मतलब सारे संदेस गये पानी में।

पानी से याद आया। हाल ही की यात्रा में महू के नज़दीक एक ऐसा ही सरकारी संदेश पढ़ने को मिला। “जल बचाईये, कल बचाईये”। सुक्खी मिले अगले स्टॉप पर। अपनी आटो सेंटर के बाहर ज़ोरदार तरीके से गाड़ियों की धुलाई कर रहे थे। मैंने आवाज़ लगाई तो पाईप पटककर पास आ गये, नल चलता रहा, डेड़ इंच की पाईप धरती की निधि उगलती रही। मैंने कहा, “ओ सरदारजी, पास ही लिखा, जल बचाओ। ए तुसी की कर रहे हो। पानी शानी बचाओ यार!”। “बाउजी, मैं की करां, हर दिन पढ़ता हूँ ये, पर फिर ख्याल आता है कि बादशाहो पानी तो बचाणा है पर कल बचाणा है, आज तो दिल खोल कर खर्च कर लै। रब दी सौं, मैं कल पानी ज़रूर बचावांगा।” कह कर सरदार जी पाईप उठाकर लग गये धंधे में। मेरे बाजू में बैठे बांगाली दादा बोले, “दुर शाला, ये लोग शोब देहाती है, सोमोझता नाइ है। ओड़े, लिखा है, पानी भी बचाईये और कॉल भी बचाईये। कॉल सोमोझता होये ना? ओड़े बाबा, वो इंग्रेजी में बोलता है न टैप, टैप। हमारा घोर पर तो हम कॉल में भी ताला लगा के रोखता है। नोई तो जॉल चुरी कोर के नई ले जायेगा शोब शैतान लोग”।

और लिखो घुमा फिरा के!