भारतीय काफी छिद्रान्वेशी होते ही हैं॥ हर सेवा, हर चीज़ पर नाकभौं सिकोड़ना, हर बात में नुक्स निकालना और यहाँ तक की अपने ब्लॉग का नाम और विषय भी नुक्ताचीनी रख लेना। पर और अगर यह सब करने के लिये पैसे भी मिलने लगे तो? “स्वपोषित ब्लॉगविधा” या “व्यावसायिक चिट्ठाकारिता” के समर्थक मेरे कई ब्लॉग मित्र यह सुन कर उछल पड़े ही होंगे। अपने ब्लॉग पर तो ज़्यादातर चिट्ठाकार नई फिल्म या संगीत के रीलिज़ की समीक्षा नियमित करते रहते हैं, हिन्दी ब्लॉगमंडल में ये अलबत्ता ज़रा कम लोकप्रिय विषय है। कुछ लोग उत्पादों का भी ज़िक्र कर देते हैं, तकनीकी रुझान वाले तो इस ताक में ही रहते हैं कि कब गूगल नया शगूफा छोड़ें तो एक प्रविष्टि बनें।

वेब 2, ये जो भी है, में इन समीक्षाओं का महत्व लगातार बढ़ता ही जा रहा है। विशेषकर गूगल, टेक्नोराती और वर्डप्रेस जैसे प्रकल्पों द्वारा माईक्रोफार्मेट्स को तरजीह देने के बाद से इन का रुआब बढ़ा है। माईक्रोफार्मेट्स क्या हैं यह तो ख़ैर निरंतर के आगामी अंक के एक लेख का विषय है तो यह चर्चा अभी नहीं। तो माजरा शायद यों हो कि गूगल पर मुंबई के किसी खास इलाके में किसी रेस्तरां को खोजते समय अगर यह खोज ईंजन साईडबार पर लगे हाथों यहाँ खाना चख चुके ब्लॉगरों या समीक्षकों की प्रविष्टि का हवाला और उनकी दी रेटिंग को भी दर्शा दे तो बेशक आपको निर्णय लेने में काफी आसानी होगी। भारतीय शहरी की लगातार बढ़ती आनलाईन उपस्थिति के मद्देनज़र क्या आश्चर्य कि निर्माता अपने उत्पाद या सेवा की ऐसी “वर्ड आफ माउथ” प्रचार को काफी महत्व देंगे। यह परिदृश्य भले भारत के लिये अभी पूर्णतः लागू न हो पर भविष्य में ऐसा होना शोले के रीमेक की सफलता जितनी अनिश्चित तो नहीं है।

तो बात हो रही थी नुक्ताचीनी करने के पैसे पर। यह बड़ा संवेदनशील मामला है। ब्लॉग हमेशा से संपादन तंत्र के दायरे के बाहर रहे, बिंदास बोल के प्रणेता रहे। ब्लॉगरों से अपेक्षा रहती है कि वे बिना किसी दबाव, लालच या मतलब के लिखें। कुछ समय पहले एक नामी टीवी समूह की एक संपादिका से बात हुई थी, इनका एक ब्लॉग तब उभर रहा था, मुझे तब लगा था कि हिन्दी चिट्ठाकारों के समूदाय के संयोजन से लाभ लेकर यह समूह जैसी आनलाईन उपस्थिति और टीवी प्रोग्रामिंग में मदद चाह रहा है उसका कुछ उचित लाभ भी चिट्ठाकारों को मिल सके, वही व्यावसायिक चिट्ठाकारिता की बात। उनको इस बात पर हैरत हुई, अगर हम पैसे देने लगे तो फिर क्या ब्लॉगर ब्लॉगर रह पायेगा? तो, मामला टची है। मेरा निजी विचार यह है कि अगर ब्लॉगिंग फ्री होस्ट पर पड़े प्राणहीन पृष्टों जैसी बेजान बात होती तो फिर परवान ही न चढ़ती। जिस बात का महत्व है उसका कुछ मूल्य भी होता है। हममें से कई इस विधा पर पैसे भी खर्चते हैं। तो अगर इस श्रम पर कुछ आर्थिक लाभ मिले तो इसमें बुराई ही क्या है? हो सकता है कि यह मुझे अधिक, संख्या और गुणवत्ता दोनों के तौर पर, लिखने की प्रेरणा भी दे।

मुद्दा शायद यह है कि पैसे के एवज में किये लेखन का स्तर क्या रहेगा और इसमें आपका अपना मत कितना रहेगा। मेरा कहना यह है कि क्या मुख्यधारा के मीडिया पर किसी प्रकाशित लेख के एवज में पैसे नहीं दिये जाते? पारिश्रमिक से लेख की गुणता पर भला क्या प्रभाव पड़ सकता है जब तक कि प्रकाशन संस्थान की टाईम्स आफ इंडिया की भांति हर लेख को एडवर्टोरियल में बदलने की सोची समझी नीति न हो। पैसे दे कर चिट्ठाकारों से समीक्षा लिखवाने की पे पर पोस्ट नामक एक सेवा है जिसमें ब्लॉगर बताये गये उत्पाद की समीक्षा लिखते हैं और पैसे कमाते हैं। इस में नुक्ता यह है कि आप समीक्षित उत्पाद या सेवा की बुराई नहीं कर सकते, अगर निंदा की तो पैसे नहीं मिलेंगे। साथ ही ऐसी समीक्षाओं के साथ कोई घोषणा नहीं की जा सकती थी जिससे कि पाठकों को यह पता चले कि फलां प्रविष्टि दरअसल कोई एडवर्टोरियल है। जाहिर है, इस की भर्त्सना हुई

Review Meऔर शायद इसी से जन्म हुआ है एक ऐसी ही नई सेवा का, रिव्यूमी। रिव्यूमी की खास बात यह है कि इसमें विज्ञानपनदाता चिट्ठाकर को “अनूकूल ” या “प्रशंसात्मक” समीक्षा लिखने के लिये विवश नहीं कर सकता। ब्लॉगर लिखे जो मन चाहे। एक और खास बात यह कि उसे अपनी प्रविष्टि में यह बताना होगा कि समीक्षा के लिये उसे पैसे मिले हैं। यानि मन में कोई चोर पालने की ज़रूरत नहीं। बस एकमात्र नियम यही है कि प्रविष्टि कम से कम 200 शब्दों की हो। अगर आप टेक्सट लिंक की विज्ञापन सेवा में पंजीकृत हैं, जैसा कि मेरे मामले में था, तो आपके ब्लॉग पहले से ही रीव्यूमी में स्वीकृत होते हैं। अन्यथा आप उनके जालस्थल पर रजिस्टर कर आवेदन दे सकते हैं। प्रति समीक्षा पैसे कितने मिलेंगे यह आपके ब्लॉग की एलेक्सा व टेक्नोराती रेटिंग पर निर्भर होता है। तो प्रति प्रविष्टि तय राशि 20 से 200 डॉलर कुछ भी हो सकती है, इसका आधा आप की कमाई होती है। पे पर पोस्ट यह राशि अधिकतम 20 डॉलर है।

ऐसी सेवायें नई हैं और इनके भविष्य का ठिकाना नहीं है। मानव मनोविज्ञान को समझना भी मुश्किल का काम है, इस प्रविष्टि के अंत में लिखा डिस्क्लेमर पढ़ने के बाद हो सकता आपकी राय इस प्रविष्टि की निष्पक्षता के बारे में तुरंत बदल जाये। लेखक के तौर पर मैं भी नहीं कह सकता कि मैं यह प्रविष्टी पैसे न मिलने की स्थिति में लिखता या नहीं। पर मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि जो मैंने लिखा उसका मसौदा मुझसे लिखवाया नहीं गया। पर हो सकता है बिना प्रकटीकरण के यह प्रविष्टि ज्यादा विश्वस्नीय लगती।

मुद्दे कई हैं। यह व्यावसायिक चिट्ठाकारिता के दायरे में आता है या नहीं, मतांतर तो होंगे ही। मेरी व्यक्तिगत राय में रीव्यूमी के लिये निःसंकोच होकर लिखना ज्यादा आसान होगा। आप क्या कहते हैं?

[प्रकटीकरणः यह प्रविष्टि रीव्यूमी सेवा के लिये लिखी गई है।]