अटल व्यथा
भाजपा एक्सप्रेस भारत प्लैटफॉर्म पर लगी और उसकी रवानगी भी हो गई। इन सारे वर्षों में और हालिया घटनाक्रम से यह बात कभी भी पल्ले नहीं पड़ी कि आखिर वाजपेयी को गले लगाए रखने की भाजपाई मजबूरी क्या है। वैंकैया ने सीधे कह दिया कि व्यक्ति आधारित राजनीति अब नहीं होगी, मोदी बने रहेंगे, फिर अगले ही पल वाजपेयी की मनौव्वल में जुट गए। दरअसल सोनिया के नाम पर व्यक्तिवाद का विरोध कर अपने बाल नोंचने वाले भाजपाई स्वयं पीछे रहते तो आज पार्टी कार्यकर्ताओं की रज़ामंदी के खिलाफ जाकर उमा भारती और वसुंधरा राजे की ताज़पोशी न हो पाती। सारे वाकये पर कविह्रदयी पूर्व प्रधानमंत्री (जिन्होनें “थाली का बैंगन” मुहावरे को पहले भी चरितार्थ किया है) ने कराह कर कहा “बस और नहीं” पर फिर पहले का कहा मज़ाक में टाल गए। इधर भाजपा का भावी चरित्र कैसा होगा यह तय कर पाना उतना ही दुष्कर होता जा रहा है जितना कि पुर्वानुमान लगाना कि इस साल मॉनसून कैसा रहेगा।
बहरहाल जैसा कि मेरा पुर्वानुमान था, वाजपेयी जी का युग और भाजपा की उदार छवि दोनों ही भूतकाल की बातें हो जाने वाली हैं। पत्रकार कमलेश्रर ने सही कहा है, “वाजपेयी का सैधान्तिक निर्गम हो चुका है”। ऐसे में उग्र हिंदू छवि वाले नेताओं के तो वारे न्यारे होंगे पर कमोबेश तटस्थ छवि वाली जमात का क्या होगा, राम जाने! संघ पहले ही कह चुका है कि “चीते का दाग छोड़ देना” भूल थी। इसलिए “तिल गुड़” फैक्टर को तिलांजली दे कर राम फिर याद आने लगे हैं। मुझे डर है कि अपने दाग वापस पाने की फिराक़ में यह घायल चीता कहीं आदमखोर न हो जाए।