हिन्दी चिट्ठाकारी के दिन बहुरे?
ये सवाल रवि भैया पूछ रहे हैं चिट्ठा चर्चा पर। प्रसंग है अनामदास, रवीश तथा प्रमोद की ब्लॉग प्रविष्टियों का किसी प्रिंट पत्रिका (“बया”) में प्रकाशन।
चिट्ठाकारों का मुख्यधारा के प्रकाशन में जाना नई बात तो नहीं है पर हिन्दी चिट्ठाजगत के लिये ये ज़रूर नई बात है। चिट्ठाकारी के शुरुवाती दिनों में लोग ब्लॉगिंग से बुक डील के सपने देखा ही करते थे, कुछ सपने सच भी हुये। बिज़ स्टोन ने अपनी चिट्ठाकारी से 2 किताबें लिखने का काँट्रेक्ट हासिल किया और गूगल में नौकरी तक पाई। (निरंतर पर हमने बिज़ की किताब के अंश हिन्दी में प्रकाशित किये था जो दुर्भाग्यवश अब जाल पर नहीं है।) बिज़ ने ब्लॉगर के मदद पृष्ठ पर “ब्लॉग से बुक” तक जाने के मार्ग भी बताये हैं। खैर, हर कोई बिज़ या सेठ गोडिन नहीं होता। तो जहाँ जाल पर आप को 6 फिगर चिट्ठाकारी के सबक मिलेंगे वहीं ऐसे किस्से भी जिन्हें पढ़ कर लगे कि माफ करें, चिट्ठाकारी से ही संतोष कर लेंगे।
सच तो यही है कि प्रिंट माध्यम में जाने का एक ही पैमाना है और वो ये कि आप का लेखन औपचारिक लेखन (formal writing) के कितना करीब है। उपरोक्त सभी चिट्ठाकार फिक्शन व संस्मरणों के मंझे लेखक हैं और इनके लेख परिपक्व होते हैं। मैं अनुमान भर ही लगा सकता हूं ये ये चिट्ठा प्रकाशित करने से पहले उसको कई बार पढ़, परिमार्जित करते होंगे, हिज्जों और व्याकरण की गलतियाँ सुधारते होंगे और संभवतः, पेशेवर लेखकों की नाई अपना ड्राफ्ट कई बार तैयार करते होंगे। मुझे लगता है कि इनकी उम्दा ब्लॉग प्रविष्टियों के नैपथ्य में अनुशासित लेखन है। और ध्यान दें तो इसमें बड़ा विरोधाभास भी है क्योंकि चिट्ठाकारी मूलतः बेफ्रिक्र, बिंदास लेखन के लिये ही जाना जाता है पर जो लेखन के प्रति संजीदा हों वे अपनी सामान्य प्रविष्टि कुछ इस तरह लिखते हैं ज्यों वो हंस के लिये लिख रहे हों।
पर अधिकांशतः यह सच नहीं होता, ब्लॉग प्रकाशक जल्दीबाज होता है, विचारों को तुरंत प्रसारित करने की तीव्र इच्छा उस पर हावी होती है और यही कारण है कि निरंतर में, जहाँ हम चिट्ठाकार मिल कर प्रिंट पत्रिका के स्तर की एक औपचारिक पत्रिका निकालना चाहते थे, लेखों का टोटा पड़ा रहता है। पत्रिका को हर रोज तो नहीं निकाला जा सकता और लेखक चाहता है कि अंक जाये तेल लेने आप तो मेरा लेख पहले छाप दो। आप कहते हैं रुक जाईये दो हफ्ते, हामी आती है पर तीसरे दिन लेख उनके ब्लॉग पर टहलता मिल जाता है।
ब्लॉग से बुक की बात निकली तो एक बड़ा अच्छा मंच सुलेखा और पेंग्विन के प्रकाशक तैयार कर चुके हैं, आपने शायद पढ़ा हो। सुलेखा लेखकों के लिये इंडिया स्माईल्स जैसी प्रतियोगितायें कराता रहा है। जो लोग किस्से कहानियाँ, यात्रा वृत्तांत लिखने में माहिर है उनके लिये एक नई प्रतियोगिता ब्लॉग प्रिंट शुरु की गई है जो जनवरी 2008 तक चलेगी। उद्देश्य तो खैर सुलेखा के चि्टठों की संख्या बढ़ाना ही है, क्योंकि सुलेखा पर लिखे एक्स्लुजिव चिट्ठे ही इसमें भाग ले सकते हैं, पर मेरे ख्याल से IBIBO जैसे ऐसा-वैसा-कैसा भी लिखने के लिये रोकड़ (इसे “करोड़” पढ़ें) बाँटने के घटिया विचार से ये लाख गुना बेहतर है क्योंकि अंततोगत्वा हर लेखक, चाहे वो ब्लॉगिया ही क्यों न हो, प्रकाशित होना चाहता है। प्रतियोगिता में हर हफ्ते दो चिट्ठों को चुन दस हज़ार का पुरस्कार दिया जायेगा और जनवरी में 52 चयनित चिट्ठों को पैंग्विन एक पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित करेगा।
अगर आप अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं तो अपना भाग्य आज़मा सकते हैं। अगर आप हिन्दी में लिखते हैं, और मेरे जैसा लिखते हैं 😉 , तो फिर या तो इंतज़ार कर सकते हैं या बुनो कहानी या निरंतर पर प्रकाशन के संतोष से भी काम चला सकते हैं 🙂
बढ़िया है। हमें तो बस अपना काम करना है।
अच्छा प्रोग्रामर, चाहे मुक्त स्रोत के लिए काम कर रहा हो या अपनी नौकरी के लिए प्रोग्राम लिख रहा हो, प्रोग्राम अच्छा और परिमार्जित और परीक्षित ही लिखेगा। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उसने शुरुआत मुक्त स्रोत से की या नौकरी से। यह उसकी इज़्ज़त का सवाल है, यही बात अच्छे लेखकों पर भी लागू होती है।
हम तो यही कहेंगे कि स्थिति बदलेगी। न वे दिन रहे न ये दिन रहेंगे।
‘मंझे’ क्या पतंग उड़ाने वाली डोर मंझा से उत्पन्न हुआ है?या इसका मूल मराठी का कोई लफ़्ज़ है?
‘बया’ में उद्धृत तीनों लेखक ‘नारद’ -विवाद के दौरान भी एक ही जगह थे।
ऐसा कुछ गजब नहीं हो गया है, देबू दा.. हिंदी की एक छमाही पत्रिका में ज़रा-सी जगह ही मिली है.. ऐसी लड़ियाने की बात नहीं है.. अच्छा हो हम इसपर ज़्यादा चिंता करें कि ब्लॉगजगत में सागग्री की बेहतरी व विविधता कैसे आए!
श्रीरवि रतलामी के निवास पर मैने परसों ही ‘बया’ का ताजा अंक देखा है जिसमें ये तीनों प्रविष्टियां हैं । प्रत्येक बडे काम की शुरूआत छोटी ही होती है । ब्लाग विधा को यह स्वीकार मिलना निश्चय ही शुभ-शकुन है । ब्लाग यदि पत्रिकाओं में प्रकाशन का स्रोत या माध्यम बनता है तो इससे इसके लेखन में जिम्मेदारी का भाव पैदा होगा – निश्चय ही ।
इस शुरूआत का स्वागत किया ही जाना चाहिए ।
छोटी सी शुरुवात है,
फिकर की कोई बात नहीं है,
शुरू ऐसे ही होती है हर बडी चीज.
रोम न बना था इक दिन में,
छापा माध्यम में भी
चालू होकर छोटे से कदमों से,
ये चिट्ठाकार दौडेंगे
छापे का मेराथन एक दिन.
ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि ये चिट्ठाकार छापाजगत में एक बहुत बडी छाप छोड सकें — शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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