कावà¥à¤¯à¤¾à¤²à¤¯à¤ƒ बनकर याद मिलो
कॉलेज के दिनों में हर कोई कवि बन जाता है, कम से कम कवि जैसा महसूस तो करने लगता है। जगजीत के गज़लों के बोलों के मायने समठआने लगते हैं और कà¥à¤› मेरे जैसे लोग अपनी डायरी में मनपसंद वाकये और पंकà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤ नोट करने लगते हैं। कल अपने उसी खजाने पर नज़र गयी तो सोचा कà¥à¤¯à¥‹à¤‚ ना कà¥à¤› यहाठà¤à¥€ पेश किया जाà¤à¥¤ “बनकर याद मिलो” मेरी कविता नहीं है, मà¥à¤à¥‡ याद à¤à¥€ नहीं किस ने लिखी, पर मà¥à¤à¥‡ उस वकà¥à¤¤ बहà¥à¤¤ पसंद आयी थी। यदि आप कवि का नाम जानतें हों तो अवशà¥à¤¯ सूचित कीजिà¤à¤—ा।
बहà¥à¤¤ दिनों से कहीं आà¤à¤– à¤à¤°
देखा नहीं तà¥à¤®à¥à¤¹à¥‡à¤‚,
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।दूरी तो तन की होती है
मन की कà¥à¤¯à¤¾ दूरी?
जो विचार के साथ चलें हैं,
कैसी मजबूरी?बहà¥à¤¤ दिनों से किसी विगत से
वह अनà¥à¤¬à¤‚ध नहीं,
बड़ी घà¥à¤Ÿà¤¨ है, साथ गंध के
दूर कहीं निकलो।
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।