काव्यालयः बनकर याद मिलो
By देबाशीष • Mar 9th, 2004 • Category: मनभावनकॉलेज के दिनों में हर कोई कवि बन जाता है, कम से कम कवि जैसा महसूस तो करने लगता है। जगजीत के गज़लों के बोलों के मायने समझ आने लगते हैं और कुछ मेरे जैसे लोग अपनी डायरी में मनपसंद वाकये और पंक्तियाँ नोट करने लगते हैं। कल अपने उसी खजाने पर नज़र गयी तो सोचा क्यों ना कुछ यहाँ भी पेश किया जाए। “बनकर याद मिलो” मेरी कविता नहीं है, मुझे याद भी नहीं किस ने लिखी, पर मुझे उस वक्त बहुत पसंद आयी थी। यदि आप कवि का नाम जानतें हों तो अवश्य सूचित कीजिएगा।
बहुत दिनों से कहीं आँख भर
देखा नहीं तुम्हें,
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।दूरी तो तन की होती है
मन की क्या दूरी?
जो विचार के साथ चलें हैं,
कैसी मजबूरी?बहुत दिनों से किसी विगत से
वह अनुबंध नहीं,
बड़ी घुटन है, साथ गंध के
दूर कहीं निकलो।
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।