निरंतर काउंटडाउन भाग 4

निरंतर को इसके प्रारंभ से ही लेखन और प्रकाशन की एकाधिक विधाओं की वर्णसंकरी (हाईब्रीड) के रूप मे देखता रहा हूँ।

Logoइन्टरनेट पर होते हुए भी माह में एक ही बार ‘टपकती’ निरंतर इलेक्टॉनिक माध्यम वाली द्रुत अविरलता से नहीं बहती। वहीं हर अंक के प्रकाशन से ही द्वीदिशी संवाद के संवेग प्रवाहित हो उठते। पत्रिका के लेख पढ कर उन पर टिपियाने का सुख जैसे किसी चिट्ठे पर टिप्पणी करते हों, मिलने लगता। निरंतर के अनिरंतर होने से यह आनन्द अवरुद्ध हुआ था।

हर माह निरंतर के प्रकाशन का इंतज़ार रहता था और हर अंक के प्रकाशित होते ही पूरी सामग्री पढ डालता था। सामग्री की गुणवत्ता निर्विवाद रही है। प्रसन्नता होती थी देख कर की समूह मे कोई भी व्यावसायिक संपादक, प्रकाशक या लेखक नहीं है लेकिन इनका प्रयास किसी भी व्यावसायिक यत्न से प्रतिस्पर्धा कर सकता है। निरंतर में लेख और स्तंभ व्यावसायिक गंभीरता से लेकर व्यक्तिगत मौलिकता तक का फ़ैलाव आच्छादित करते हैं।

इस अनूठी परियोजना से जुडे सभी चिट्ठाकारों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और उन के साथ अलग अलग परियोजनाओं में जुडा भी रहा हूं। इस दृष्टि से निरंतर समूह में अपने आपको पा कर कुछ आश्चर्य नही होता, प्रसन्नता आवश्य होती है।

यह बहुआयामी संरूपण अनूठा है, इतना अनूठा की इसके लिए शायद “जालचिट्ठापत्रिका” जैसा कोई नया नाम गढ़ना पड़े, और मुझे प्रिय भी है। निरंतर हिंदी चिट्ठाकारों का सबसे गंभीर मंच बनी और हमारे सरोकार की आवाज़ भी, मुझे पूरा विश्वास है आगे भी रहेगी और सतत बहेगी। इसको बेहतर बनाते जाना ही ध्येय है। पत्रिका का मासिक या द्विमासिक प्रकाशन चाहे इसे इन्टरनेट पर धीमा सिद्ध करे लेकिन इसके लेख दीर्घकालिक मुद्दों से गंभीर जुडाव की वजह से अपनी प्रासंगिकता में कभी भी जल्दी बासी नही होते – पुन:पठनीय बने रहते हैं ये ज्यादा महत्वपूर्ण और तुष्टीकारक सत्य है, संभवत: गर्व की बात भी हो।

अदम्य चिट्ठाकार ईस्वामी निरंतर की कोर टीम के नये सदस्य हैं।