अमेरिका में चलेगी गाँधीगिरी?
इराक से हिसाब बराबर करने के बुश के तरीकों, जिसमें अमेरीकी पैसा और खून दोनों ही बहाये गये, को भले लोग कोसें, अमेरीकी सिनेटर और अमेरीकी राष्ट्रपति पद के संभावित रिपब्लिकन प्रत्याशी और अभिनेता फ्रेड थॉम्पसन मानते हैं कि गाँधीवाद अमेरिका के लिये कोई मायने नहीं रखता। उन्होंने हाल ही में वक्तव्य दियाः
“द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान गाँधी ने अंग्रेज़ नागरिकों को एक खुला ख़त लिखा जिसमें उनके नाज़ियों को समर्पण कर देने की गुजारिश की गई थी। बाद में जब होलोकास्ट की भीषणता का अंदाज़ा लगा तो उन्होंने वारसॉ और ट्रेबलिंका जैसे जगहों से अपनी जान बचाने के लिये लड़ने या भाग जाने वाले यहूदियों की आलोचना की। “यहूदियों को खुद को उन कसाईयों के हवाले कर देना चाहिये था।”, उन्होंने कहा, “उन्हें पहाड़ों से समुद्र में कूदकर जान दे देना चाहिये था।” “सामूहिक आत्महत्या”, उन्होंने अपने जीवनीलेखक को कहा, “वीरता होती।”
तथाकथित शांति अभियान को बिल्कुल अधिकार है कि वे गाँधी के पथ पर चलें पर सामूहिक आत्महत्या को अमेरिकी विदेश नीति बनाने के उनके प्रयास यहाँ नहीं चलने वाले। जब अमेरीकी वीरता के बारे में सोचते हैं तो हम अफगानिस्तान और इराक स्थित युवा अमेरीकी सिपाहियों के बारे में सोचते हैं जो अपनी जान दाँव पर लगाकर एक और अडॉल्फ हिटलर और सद्दाम हुसैन को बनने से रोक रहे हैं।”
अगर ये हजरत राष्ट्रपति बन सके तो हमें रंग दे बसंती को आस्कर के लिये पुनः नामांकित करना चाहिये।
कल एक अमरीकी की कार के पीछे एक नारा लिखा हुआ पढा –
“मैं तो पहले ही अगले युद्ध के खिलाफ़ हूँ!”
जहाँ तक मुझे पता है गाँधी ने कभी भी आत्महत्या जैसी कायराना हरकत की पैरवी नहीं की – बाकी इतिहासकार जानें या गांधी के चमचे/प्रशंसक!
रही बात रिपब्लिकन्स की तो उन्होंने उत्तरी कोरिया के किम जंग के बजाए सद्दाम ही से पंगा क्यों लिया? तेल की खातिर ही ना! और बाई द वे ओसामा कित्थे है? तानाशाहों को छोडो यार आतंकवादियों को ही संभाल लो बहुत है.
मुझे तो खैर कभी भी ये खुशफ़हमी नहीं थी कि अमेरिका में गाँधी का सम्मान कभी रहा हो, जब भारत ही उन्हें भूल गया तो विदेशियों से क्या उम्मीदें रखें। गाँधी की समाधि पर अमेरिकी राष्ट्रपति का पुष्पार्पण एक प्रोटोकॉल से ज़्यादा कुछ भी नहीं।