निरंतर काउंटडाउन भाग ५

जब चिट्ठाकारी शुरु की लगभग उसी समय निरंतर से भी परिचय हुआ। पहली बार पढकर बहुत आनंद आया। इसलिये कि एक तो पढने का कुछ और मसाला मिला और दूसरे इसलिये कि ये पत्रिका कुछ अलग किस्म की लगी थी। अन्य जाल पत्रिकाओं से अलग इस मायने में थी कि कहानी और कविताओं के अलावा कई अन्य लेख जो कि समसामयिक थे, इसमें जगह पाते थे। लेख ज्ञान वर्धक थे और सबसे बडी बात थी कि प्रतिक्रिया देना निरंतरता को बनाये रखने में मदद करता था। दूसरों की प्रतिक्रिया भी परस्पर प्रभावी अनुभव देती।

गरचे हर महीने इंतज़ार रहता नये अंक का। हिस्सेदारी पूरी हो इस क्रम में समस्यापूर्ति में भी एक बार भाग लिया और पुरस्कृत हुये। हमारी बेखुदी का आलम ये था कि नाम घोषित होने के बावजूद हमने अपना डाक पता, पुरस्कार पाने के लिये संपादकीय मंडल को नहीं भेजा। और उनके तत्परता का ये आलम था कि मेरे मेल की अनुपस्थिति में देबाशीष जी ने मुझसे आग्रह किया पता भेजने को। निरंतर की दक्षता का ये जीता जागता प्रमाण था। (पुरस्कृत पुस्तक मेरे आलमारी की शान है )

जब निरंतर बंद हुई तो एकाएक विश्वास नहीं हुआ। कई बार साईट पर टहलने जाते और निराश पुरानी कथाओं को देख लौट आते। फिर जाना भी छोड दिया। पर शायद कहीं आस थी इसलिये अपने चिट्ठे पर से कई निष्क्रिय लिंक उडाये पर निरंतर का लिंक अंगद के पाँव की तरह जमा रहा। उखाड ले कोई क्या मज़ाल।

निरंतर की शुरुआत फिर से हो रही है। निरंतर समूह में खुद को पा कर खुशी हो रही है, ये ज़ाहिर बात को दोबारा कहना जैसा है। हाँ गर्व की अनुभुति भी हो रही है कि इस पत्रिका को दोबारा निकालने में कुछ योगदान, कणमात्र ही सही, मेरा भी है। कोशिश रहेगी कि इस प्रयास में निरंतरता बनी रहे।

निरंतर से मेरी अपेक्षायें बहुत हैं। एक ऐसी पत्रिका जिसमें पाठकवर्ग का हर समूह, स्त्री पुरुष, नौजवान (सब जवान ही हैं 😉 सब को पढने का मसाला मिले। लेखों की ऐसी प्रासंगिकता हो कि महीनों बाद भी उनको एक बार, दो बार, नहीं…बार बार पढा जाये। पाठकों की पूरी हिस्सेदारी हो और एक ऐसा मंच बने जहाँ हम और आप सब बराबर के भागीदार हों।

काव्यात्मक चिट्ठाकार प्रत्यक्षा निरंतर कोर टीम की नई सदस्या हैं।