कार-मुक्त शहरः भारत के लिए एक अधूरा सपना या एक स्थायी भविष्य?
ED 2024 में विनोद खोसला की भविष्यवाणियों में से एक हैः “शहरों से कारें गायब हो जाएंगी“। हमारे जैसे देशों के लिए यह कल्पना एक परी कथा की तरह लगती है।
गाड़ियों से पटी सड़कें, लगातार हॉर्न, अपर्याप्त पार्किंग एक से दूसरी जगह तक पहुंचने में घंटों का जाया समय। लेकिन हम और कारें खरीदने से नहीं रुकने वाले। एक कार मेरे लिए, एक मेरी पत्नी के लिए, और एक उस छोटे बच्चे के लिए जो अभी गाड़ी चलाना नहीं जानता भी नहीं। कार का स्वामित्व अभी भी सफलता और सामाजिक गतिशीलता से जुड़ा एक स्टेटस सिंबल बना हुआ है। बढ़ती प्रयोज्य आय के साथ तेजी से फैलता मध्यम वर्ग कार स्वामित्व की आकांक्षाओं को बढ़ावा दे रहा है। तिस पर हमारी धारणा ये है कि सड़कें और बुनियादी ढांचे बेहतर हो रहे हैं और सार्वजनिक परिवहन में हज़ार कमियाँ हैं। टाइम पर नहीं आती, हमेशा भीड़भाड़ रहती है, रश आवर में तो बाबा रे बाबा और ये भी कि जेन्ट्री देखी है साथ चलने वालों।
बावजूद इसके, हमें सड़क पर वाहनों की संख्या पर अंकुश लगाने की कोई योजना नहीं दिख रही है। ओ हाँ, विद्युत वाहन (ईवी) को प्रोत्साहन प्रदान करके हम आपके लिए थोड़ा प्रदूषण कम करेंगे, ऐसा हमारी सरकार का कहना है। इस बीच, मार्च 2024 में यात्री वाहन की बिक्री पिछले साल के मुकाबले 8.9% बढ़ गई। बेशक लॉबी के दबाव तो हैं ही। अमेरिका जैसे विकसित देशों में कार स्वामित्व संतृप्ति बिंदु पर पहुंच गया है और वहाँ अधिकांश घरों में पहले से ही वाहन हैं, इसलिये कार निर्माता अब भारत जैसे उच्च विकास क्षमता वाले नए बाजार से नफ़ा बनाने के लिए बेताब हैं।
हम नीदरलैंड्स जैसे देशों से कब सीखेंगे? साइक्लिंग को बढ़ावा देने में उनकी सफलता साइक्लिंग के बुनियादी ढांचे और, शहरी नियोजन के प्रति लंबे समय से चली आ रही प्रतिबद्धता का नतीजा है। वहाँ चलने की जगह को प्राथमिकता मिलती है, और साइक्लिंग संस्कृति गहरी जड़ें जमा चुकी है। आप कहेंगे कि हमारे ‘स्मार्ट शहरों’ में भी तो साइकिल ट्रैक हैं। ज़रूर हैं लेकिन आप चला तभी पायेंगे जब आप खंभों, गड्ढों, पेड़ों, कूड़ेदानों, फेरीवालों और उलट दिशा से आते मोटरसाइकिल चालकों से टकराये बिना बढ़ने में सक्षम हों।
हमें निश्चित रूप से एक बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसे नागरिक समाज द्वारा जोरदार ढंग से आगे बढ़ाया जाना चाहिये। इसे चलाने के लिए सरकार पर निर्भर रहना बड़ी गलती है, क्योंकि उसके अपने बहुत सारे एजेंडे होते हैं। मेट्रो रेल नेटवर्क के विस्तार और बस सेवाओं में सुधार में निवेश जारी रखना बहुत अच्छा है, लेकिन लास्ट माइल कनेक्टिविटी के बारे में क्या (पुणे के हिंजवडी में उसके लिए “स्काई बस” की एक हास्यास्पद योजना प्रस्तावित है)। चलिये ईवी अपनाने को प्रोत्साहन देकर शायद प्रदूषण कुछ कम हो, लेकिन ईवी बैटरी निपटान से संबंधित पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में क्या? हमारा बिजली प्रदाय का बुनियादी ढांचा अतिरिक्त ऊर्जा मांग का सामना कैसे करेगा?
मेरी राय में, हमें अत्यधिक कार के उपयोग को हतोत्साहित करने के लिए शहरी क्षेत्रों में भीड़ शुल्क (कंजेशन चार्जेस), या ज्यादा पंजीकरण शुल्क (विशेष रूप से दूसरे वाहन की खरीद पर) जैसे कठोर उपायों की आवश्यकता है, भले ही वो आम जनता को अप्रिय लगें। बेहतर लास्ट माइल कनेक्टिविटी से सार्वजनिक परिवहन को अपनाने में मदद मिलेगी। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?