फिर बहाये गये घड़ियाली टसुये
भारतीय नागरिक सूर्यनारायण की तालीबानी कट्टरपंथियों द्वारा हत्या को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की काफी तवज्जोह मिली। सरकार ने निंदा का बयान जारी किया और सूर्यनारायण की विधवा को नौकरी और मुआवजे की रकम देने की घोषणा की। इसके सापेक्ष कल्पना कीजिये दिल्ली में लुटेरों द्वारा मारे गये किसी अधेड़ की या पुणे में सड़क दुर्घटना में जान गंवा बैठे किसी व्यवसाई की विधवा और आश्रितों के हाल के बारे में। इन्हें किसी ने कभी कोई मुआवजा नहीं दिया, न कोई नौकरी। मुझे मृतक के परिवार से पूरी सहानुभुति है और मैं मानवीय आधार पर की गई मदद का विरोध नहीं कर रहा पर सचाई यह है कि सूर्यनारायण अफगानिस्तान में भारतीय सेना के सदस्य नहीं थे, वे किसी अंतर्राष्ट्रीय मदद दल के भी नही थे, वे बाहरेन की किसी टेलीकॉम कंपनी के लिये काम करते थे, ज़्यादा पैसे की चाह की वजह से उन्होंने यह नौकरी शायद संभावित खतरों की जानकारी होते हुये भी की। आर्थिक हितों के लिये अपनी सरजमीं से दूर खतरों से खेलने वाले नागरिकों के लिये क्या सरकार अपनी सेना की टुकड़ी उनके साथ भेजती या एसपीजी के कमांडो? या फिर हर आतंकी मांग के सामने घुटने टेक देती रहे?
इंडीयन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में सौभिक चक्रवर्ती ने यह मुद्दा बड़ी साफगोई से उठाया है। लेखक का मत है कि ऐसी जगहों पर जाने वालों के लिये ट्रेवल एडवाईज़री जारी कर के सारे संभावित खतरों के प्रति आगाह कर दिया जाना चाहिये , बस! इसके बाद भी जो जाना चाहे तो जाये पर अपनी जिम्मेवारी पर। सरकार को क्योंकर इनकी जिम्मेदारी लेनी चाहिये? सौभिक का मानना है कि सही सरकारी कदम होना चाहिये कि बीमा कंपनियों को ऐसी नौकरियों पर जाने वालों के लिये बीमा पॉलिसियाँ बनवाये और पॉलिसी लेना लाज़मी कर दे। प्रीमियम का भुगतान नौकरी देने वाली कंपनी ही करे ताकि जिम्मेदार कंपनियों की शिनाख्त भी हो सके।
बिना किसी ठोस और सही कदम उठाये हर ऐसी मौत पर घड़ियाली टसुये बहाने का कोई औचित्य नहीं है।
वाकई में सौभिक ने सही लिखा है।
सौभिक का तर्क काफ़ी हद तक ठीक लगता है, लेकिन उसे शत-प्रतिशत ठीक नहीं कहा जा सकता.
सूर्यनारायण को मारा गया इसलिए नहीं कि वो बहरीन की किसी कंपनी की ओर से ज़्यादा पैसे की लालच में अफ़गानिस्तान में काम कर रहे थे. उन्हें मारा गया इसलिए कि वो भारतीय नागरिक थे. ग़ौर करें तालेबान की माँग पर. तालेबान ने चौबीस घंटे के भीतर सभी भारतीयों को अफ़ग़ानिस्तान से निकल जाने को कहा. कहने का मतलब ये कि तालेबान की नज़र में सूर्यनारायण का सबसे बड़ा ज़ुर्म उसका भारतीय होना था. ऐसे में उसके परिवार के भरन-पोषण की कुछ-न-कुछ ज़िम्मेवारी तो भारत सरकार की बनती ही है.
जहाँ तक मुआवज़े की बात है तो हर उस परिवार को किसी कमाऊ पूत के गुजर जाने पर सरकारी सहायता मिलनी चाहिए जिनकी आय का कोई और ठोस ज़रिया जैसे बीमा, अनुकंपा आधार पर नौकरी आदि नहीं हो. अब चाहे मारे गए व्यक्ति की जान तालेबान ने ली हो, किसी अपराधी ने या किसी धनपशु ने, या फिर उसकी मौत किसी दुर्घटना में ही क्यों न हुई हो. (यहाँ हमें पश्चिमी देशों से तुलना करने की ज़रूरत नहीं क्योंकि वहाँ की सरकारें वैसे भी किसी को भूखा-नंगा-बेघर नहीं रहने देती.)
सूर्यनारायण के मामले में तो सरकार की कोई एडवाइज़री भी नहीं थी. पश्चिमी देशों के युद्धविरोधी कार्यकर्ता सरकारी सलाह की अनसुनी कर इराक़ जैसी ख़तरनाक जगह पर जाकर आतंकवादियों के चंगुल में फंस जाते हैं, इतना पर भी उन्हें छुड़ाने के लिए उनकी सरकारें एड़ी-चोटी एक कर देती हैं. ख़ुशी की बात है भारत सरकार ने भी हर ऐसे मौक़े पर राजनयिक सक्रियता दिखाई है, भले ही मीडिया के दबाव में आकर वो ऐसा करती हो.
हिन्दी ब्लोगर ने ज्यादा सही लिखा है
आपके विचार इस विषय पर लोकप्रिय मत के करीब है और तर्क सही भी हैं। दरअसल सत्यनारायण की मौत से ही यह बहस जन्मी है कि पर्याप्त बीमा और एडवाईज़रीज़ यथास्थान होते तो शा्यद ये वाकये न होते और गर होते तो परिवार की आर्थिक हाल पर असर नहीं पड़ते। तालिबानी कट्टरपंथी पहले भी भारतीयों की जान लेते रहे हैं। हम उनसे किसी व्यवहारिकता की उम्मीद ना सही पर अपने नागरिकों और सरकार से तो रख ही सकते हैं।
बढ़ते वैश्विक बाजार में सिर्फ पॉलीटिकल करेक्टनेस से काम नहीं चलने वाला। दरकार होगी नियमों और दृष्टिकोण में बदलाव की।
बिल्कुल सहमत हूँ।