काव्यालय ~ इस सफ़र में
मैंने कवि बनने की अपनी नाकाम कोशिशों का ज़िक्र इस चिट्ठे पर कभी किया था। उन दिनों गज़ल लिखने पर भी अपने राम ने हाथ हाजमाया, बाकायदा तखल्लुस रखते थे साहब, बेबाक। तो उन्ही दिनों की एक गज़ल यहां पेश है। अगर उर्दु के प्रयोग में कोई ख़ता हुई हो तो मुआफी चाहुँगा।
इस सफ़र में बहार के निशां न मिले
जहाँ गई भी नज़र, सूखे से दरख्त मिले।मेरी ख़ता कि अब बूढ़ा बीमार हूँ मैं
शर्म आती है उन्हें सो अकेले में मिले।रहनुमा1 कहतें हैं तोड़ेंगे वो पुराने रिवाज़
हमें तो सब मुबतला2 अक़ीदों3 में मिले।हैरां हूँ क्या हो जाती है मुहब्बत ऐसे
गोया दो चार दफ़ा हम जो बग़ीचों में मिले।मिल्क़यत लिख वो गुज़रे जो ‘बेबाक’ के नाम
हमदम बनने को रक़ीब4 रज़ामंद मिले।
- रहनुमा = राह दिखाने वाला (Guide)
- मुबतला = जकड़े हुए (Embroiled In)
- अक़ीदा = मत (Doctrine Of Faith)
- रक़ीब = दुश्मन (Enemy)
deb mujhe to yeh kavita bahut achi lagi