एक बात कहूं?
छायाः अक्षय महाजन |
एक बात कहूं?
बचपन के दिन अच्छे थे।
कान उमेठे जाने पर दर्द तो होता था
पर वो शरारतों में नहीं उतरता था।
कान तो अब भी उमेठे जाते हैं
पर दर्द ज़रा नहीं होता।
अब शरारत करने से जी घबराता है।
एक बात कहूं?
बचपन के दिन अच्छे थे।
लड़ते थे, रोते थे, रुलाते भी थे
और कुट्टी की उम्र पल भर की होती थी।
लड़ते रोते रुलाते अब भी हैं
पर सुलह के रास्ते अनजाने लगते हैं।
अब कुट्टी करने से जी घबराता है।
एक बात कहूं?
बचपन के दिन अच्छे थे।
गंभीर शब्द पास नहीं फटकता था
और हर पल होता था धींगामस्ती का।
अब चित्त पर संजीदगी का नकाब है
लोग जिसे उम्र का तकाज़ा कहते हैं।
उम्र के यूं बढ़ने से जी घबराता है।
क्या बात है? विरह वेदना?
कविताई ऐसे ही तो होती है!
सम्हालिये..
इब्न बतूता और हल्लम हल्लम आप के लिए ही छाप रहा हूँ..
उम्र के यूं बढ़ने से जी घबराता है।
कोई लौटा दे मेरा बचपन
बढ़िया कविता है। समय के पहिए को पीछे ले जाएँ और अपने भीतर के बच्चे को फिर जगाएँ।
क्या? !! कविता!!
नहीं पता था की आप इतनी सुन्दर कविता भी कर लेते है. आहत मन की सुन्दर अभिव्यक्ति.
बढ़ती उम्र को लात लगाइए.. ऐसे न घबराइए..
भई मज़ा आ गया । सुंदर कविता ।
एक बात कहूँ-
अमरीका आकर खाली समय ज्यादा मिला
बचपन के दिन
दूरी का अहसास
वो सब साथ साथ
यहाँ के हालात देख जी घबराता है——
–बढ़िया भाई!! आप कवि हो गये. देश और घर से दूरी ने आपको कवि बना दिया.
वाह सुन्दर कविता, अहसासों से भरपूर। मालूम नहीं था कि आप इतनी अच्छी कविता भी कर लेते हैं।
बहुत शुक्रिया! कथित कवितायें तो पिटारे में काफी हैं पर सार्वजनिक करने से डर लगता रहा है। मैं तो ये डिस्क्लेमर डालने की सोच रहा था कि “सभी भावी, संभावी, अवश्यमभावी,स्थापित,विस्थापित व संस्थापित कवि इस प्रकाशन का बुरा न माने, भूलचूक लेनी देनी” हौसला बढ़ाया है तो और भी झेलना होगा। बढ़िया इंटरनेट कनेक्शन के ये साईड अफैक्ट हैं।