युवा नेताओं की वाकई ज़रूरत है
विगत पोस्ट में राजनीति में युवा नेताओं के आगे बढ़ने की बात की तो कुछ युवा तुर्क याद आ गये। भारतीय राजनीति कि विडंबना है कि उच्च पदों की चढ़ाई एवरेस्ट की चढ़ाई करने जैसा है। जब तक चोटी के नज़दीक पहूँचते हैं शरीर जर्जर हो जाता हैं। न जिगर में महत्वाकांक्षा रहती है, न ही बचता है फेंफड़ों में राज करने का श्वास। चंद्रशेखर और वाजपेयी जब तक सर्वोच्च राजनैतक पद तक पहुंचे युवा शब्द उनके लिये लागू नहीं होता था। एक और विडंबना रही कुछ प्रतिभावान नेताओं के असमय काल कवलित होने की। राजीव गाँधी, माधवराज सिंधिया, राजेश पायलट और हाल ही में प्रमोद महाजन। महाजन के निधन और अस्पताल में कटा पहले का पखवाड़े के दौरान जो अटेंशन मीडिया और कार्यकर्ताओं की और से मिला उससे यह सिद्ध होता है कि हम राजनीति में उर्जावान, स्पष्टवादी, कमोबेश साफ छवि और मीडिया सैवी नेताओं का कद बढ़ते देखना चाहते हैं। ऐसे नेता जो तगड़ा जनाधार रखते हों, कुशल प्रशासन क्षमता रखने के संकेत देते हों और जो विदेश में हमारी छवि उज्जवल कर सकें। हमारे राजनैतिक दल अब भी जयराम रमेश, उमर अबदुल्ला, सचिन पायलट जैसे युवा और प्रतिभावान नेताओं को डब्बाबंद रखे रहने पर आमादा हैं। वे चाहते हैं कि उपेक्षा की सीलन से उन पर फफुंद पड़ जाये, और लचर बूढ़े नेता राजनीति के गंदे खेल खेलते रहकर सत्ता का शहद चाटते रहें। क्या कोई समझदार युवा नेता मंडल के प्रेत को पुर्नजीवित करने की सोचता?
समसामयिक लेख है। युवाओं को राजनीति की ओर प्रेरित करने वाला है जिसकी बहुत ज़रुरत है।
क्या किया जा सकता हैं? बुढे नेता मरे बीना कुर्सी छोङते नहीं, दुसरी पांत के होनहार नेता भगवान को प्यारे हो गये, इधर युवानेताओं में इतना दम नहीं कि कुर्सी छिन ले क्योंकि वे अभी राजनीति सिख रहे हैं. फिर सीधे उच्चपद पाने के लिए एक खास परिवार में पैदा होना होता हैं, इस लिए जो हुआ हैं उसकी ताजपोशी कि तैयारी चल ही रही हैं.
तब तक सठीयाई बुद्धी जो करवाये देखो.