आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?
पुर्नवास का प्रश्न केवल हथियार डाल चुके आतंकवादियों के लिए ही नहीं वरन् समाज के पूर्वाग्रहों के शिकार अनेक वर्गों के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है, चाहे वो परित्यक्त या व्यभिचार से पीड़ित महिलाएँ हों, किन्नर, अपंग, सजा भुगत चुके अपराधी हों, या एड्स जैसी कलंकित बीमारियों के पीड़ित। इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने, अपने साथ समाज में उठने बैठने देने के विचार मात्र से ही हमारे पूर्वाग्रह हमें सिहरा देते हैं। हमें इनमें निहित कथित बुराईयों से संक्रमण का डर सताता है जबकि हममें से कई ऐसे हैं जो स्वभावगत रूप किसी न किसी समय व्यभिचारी, अपंग या किन्नर बन जाते हैं पर समाज के हंटर से बचे रहते हैं।
आतंकवाद का मसला वैसे भी बड़ा संवदनशील मुद्दा है, सरकार के लिए जो आतंकवादी है वो किसी वर्ग के लिए आज़ादी के सिपाही हो सकते हैं। राज्यों के विलय की पटेल नीति की कमी या हो या राजनयिक स्तर पर भारत का अंर्तराष्ट्रीय मंचों पर कमज़ोर प्रर्दशन या राजनेताओं के स्वार्थ का समर, कश्मीर का स्वर्ग सेना के हवाले करके समाधान की राहें तो बरसों पहले ही बंद कर दी गईं। भारत में सेना का इस्तेमाल भी बड़ा हास्यास्पद है, किसी भी राज्य के पुलिस और प्रशासनिक ढांचा इतना बलहीन है कि अपने माद्दे पर किसी भी आपदा से निबटने की कुव्वत नहीं, ज़रा भी परेशानी में फंसे नहीं कि केन्द्र से सेना भेजने का अनुरोध करने में पलक झपकने की भी देर नहीं लगती। आतंकवाद जैसे मसलों पर सेना के निबटने का तरीका ज़रा अलाहदा ही रहता है, इनके लिए दिल से ज्यादा दिमाग से लिए निर्णय ज़्यादा मायने रखते हैं। ऐसे में गेहूँ के साथ घुन का पिस जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं जिन्हें मानवाधिकार संगठन ज़्यादतियाँ कह कर पुकारती रही हैं।
मेरे विचार से सुबह के भूलों का विस्थापन ज़रूरी है क्योंकि यह आतंक के साये तले रह रही जनता में विश्वास जगाता है। कशमीर के लिए खास “पैकेज” राजनैतिक रूप से भी हमारा पक्ष दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं। पर इन सभी से ज़रूरी है समस्या के निदान की ओर तेज राजनयिक कदमों की। यहीं गाड़ी बरसों से अटकी पड़ी है। हर बार दोनों तरफ के नौकरशाह कुछ न कुछ मसला उठा कर मुँह फुला कर बैठ जाते हैं। देशभक्ति ठीक है पर हमें यह सत्य भी स्वीकारना चाहिए कि कश्मीर की 222236 वर्ग की.मी. ज़मीन में से पाकिस्तान लगभग 35 फीसदी (78000 कि.मी) पर काबिज़ है। 1963 के एक विवादास्पद समझौते के आधार पर पाकिस्तान लगभग 5170 कि.मी. ज़मीन चीन के सुपुर्द कर चुका है। हमारे देश के अलावा सारी दुनिया में भारत के नक्शे में से पाकिस्तान के कब्ज़े वाली ज़मीन निकाल कर दिखाई जाती है। इस परोक्ष युद्ध में हम करोड़ो की रकम ओर बहुमूल्य जानें झोंक चुके हैं। मैं नहीं कहता ये कोई तुरत फुरत हल हो जाने वाला मसला है, पर हल की ओर कुछ कदम तो बढ़ें। बरसों से हम राजनीतिक स्टेलमेट के शिकार हैं।
छोटे मुँह बड़ी बात, पर रास्ते तो कई दिखते हैं, पहलाः पाकिस्तान को मटियामेट करने का ईरादा बना कर उस पर हमला बोल दें, परमाणु शक्तियों के बीच का यह युद्ध दुनिया और हमें किस मुक़ाम तक ले जाएगा इसकी भविष्यवाणी तो नेस्त्रादम भी शायद ही कर पायें। इसमें ग़र विजयी भी हुए तो टूटी आर्थिक कमर पर विश्व भर में पाकिस्तान के खैख्वाहों, जिसमें दुनिया का दरोगा भी शुमार है, की लात सहते हुए हम कभी उबर पायेंगे इस बात पर शंका होती है। एक और रूखः चीन से ज़मीन वापस ले कर वर्तमान नियंत्रण रेखा को सीमा रेखा का दर्जा दें दे, सबसे व्यावहारिक हल, या तीसराः संयुक्त राष्टृ को सर्वौच्च और निष्पक्ष मान कर (दुनिया के दरोगा के रहते इस बात पर यकीन करना ज़रा मुश्किल ही है) उसके और अन्य तटस्थ देशों की निगरानी में जनमत संग्रह हो, पर पूर्ण कश्मीर के लिए, भारत पाकिस्तान और चीन की ज़मीन मिला कर। अगर फैसला हमारी तरफ हो तो निगरानी रखने वाले देशों, संगठनों से लिखित गारंटी लें की पाकिस्तान आतंक के प्रायोजन से तौबा करे या सैंन्कशन्स झेल कर आर्थिक रूप से मिट जाने को तैयार रहे। भारत के पत्रकारों की हाल की पाकिस्तान यात्रा से सपष्ट है कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाला आज़ाद कश्मीर भी कोई आज़ाद नहीं है। जे.के.एल.एफ जैसे संगठन न पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं न भारत के,कश्मीर के ज्याद़ातर बाशिंदे आतंक से मुक्ति और खुशहाली वापस चाहते हैं, पाकिस्तान से उनका कोई मोह नहीं।
अब यह तो एक दिवास्वप्न ही होगा कि हम यह मानें कि कश्मीर की समस्या तो सुलझती रहेगी, पूर्व आतंकियों को पुर्नस्थापन का लॉलीपॉप देने भर से आतंक का वीभत्स खेल स्वतः ही बंद हो जाएगा। सीमा पार आतंक से समस्या उपजी, पर इसे बंद कराने के लिए वैश्विक जनमत बनाने तक में हमारा राजनैतिक नेतृत्व नाकामयाब रहा है। सारा मामला राजनयिक बयानबाज़ी के पाश में फँस गया है। राजनीतिज्ञ पाकिस्तान के खिलाफ एक ओर तो ज़हर उगल कर लोगों को बरगलाते रहें और दूसरी ओर रेल, बस मार्ग खोलने और क्रिकेट खेलने के दोगले कदम भी उठाते रहें। दुर्भाग्य की बात है कि रीढ़ विहीन राजनैतिक पाटो के बीच में पिसना ही इस राज्य की नियती बन चुकी है। कोई ऐसा नेतृत्व नहीं जो ये ठान ले की हल एक निर्धारित समय सीमा में निकालना ही है। नतीजतन, कैंसर का ईलाज़ नीम हकीम कर रहे हैं और रोग बढ़ा जा रहा है। डर कि बात यह है कि कहीं सही इलाज के अभाव में यह कैंसर कश्मीर को ही निगल न ले।
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