मैं तब इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में था जब मंडल कमीशन की अनुशंसा के खिलाफ छात्र आंदोलन जोर पकड़ रहे थे। मुझे याद है, तब सीनियरों ने पकड़ पकड़ हम सब को इकट्ठा किया था और फिर भेड़ों की नाई चल पड़े थे हम “प्रदर्शन” करने। दोपहर जब पुलिसिया लाठियाँ चलीं तो जिसको जो रास्ता मिला बस सरपट भागे। शाम तलक फिर आ जुटे, स्वेच्छा से गिरफ्तारी दी, अंधेरा होने तक थाने के बाहर मैदान में बैठे रहे और फिर न जाने कब हॉस्टल लौट आये। बरसों बाद मंडल का जिन्न बोतल से बाहर निकाला गया है। जो काम तब सीनीयरों ने किया अखबार बोल रहे हैं कि इस बार इवेन्ट मैनेजमेंट कंपनियाँ कर रही थीं, डॉक्टरों की मुहीम को “डॉक्टर” कर के। मीडिया को समझ नहीं आ रहा कि कश्मीर, फुटबॉल,शेयर बाज़ार, क्रिकेट और आरक्षण में से किस को कितनी तरजीह दें।

ईमानदारी से कहूँ तो मुझे समझ नहीं आता कि किस का पक्ष लूँ। हमारी सामाजिक संरचना ही जाति और वर्ण आधारित रही है। यह आज की बात तो नहीं है। और आजाद भारत के जन्म से पहले से ही इन पर आधारित राजनीति की शुरुवात हो गई थी। बस खिलाड़ी बदलते गये, खेल वही रहा। एनडीटीवी के सर्वेक्षण से पता चला कि ग्रामीण भारत यह तो मानता है कि आरक्षण का मुद्दा महज़ राजनीतिक तिकड़म है पर यह भी मानता है कि आरक्षण से समाज का भला होगा। चिदंबरम कहते हैं कि मैंने अपनी आँखों से दक्षिण भारत को आरक्षण के सहारे आगे बढ़ते देखा है। सचाई यह है कि आज तक कोई फीसीबिलिटी स्टडी नहीं हुई जो यह बता सके कि अब तक आरक्षण से लोगों को फायदा पहुँचा कि नहीं।

पर यह सही है, जिस वर्ग को अपने हिस्से से कुछ जाता दिखेगा उसे गुस्सा तो आयेगा पर आरक्षण के विरोधी जब यह आपत्ति जताते हैं कि इससे नालायक लोगों को मौका मिल जायेगा तो मुझे बात समझ नहीं आती। क्या सवर्ण जाति के “नालायक छात्र” कैपीटेशन फी की मार्फत एडमिशन नहीं पा जाते? तो मुद्दा दरअसल काबिलियत का है ही नहीं। मु्द्दा यह है कि आज आजादी के साठ साल बाद भी आरक्षण की दरकार क्यों महसूस हो रही है? आपका कहना सही है, उ.प्र. के चुनावी मैदान में काँग्रेस जाति की राजनीति के माहिर खिलाड़ी मुलायम सिंह को शिकस्त दे कर राहुल को प्रधानमंत्री की कुर्सी का सही हकदार साबित करना चाहती है। यह तो हर कोई जानता है कि यह राजनीतिक तिकड़म है और हर राजनीतिक दल इस हमाम में नंगा है। तो मुद्दा यह कि आजादी के साठ साल बाद भी इस देश में जातिगत व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी बसी हैं कि जातिगत राजनीति करने वाले दलों की दालरोटी बदस्तूर चल रही है। मुद्दा यह है कि समानता की व्यवस्था की बात करने वाले हमारे समाज में असमानता की अभी भी गहरी पैठ है।

दुख की बात यह है कि असमानता के सही कारणों की खोज न कर बस तुष्टीकरण की राजनीति इस देश में होती है। जख्म पर मरहम न लगाओ, बैसाखी दे दो! आरक्षण के सही ज़रूरतमंदों की पहचान मत करो, उनको प्रतियोगी परीक्षाओं की महंगी तैयारी करने में मदद न करो, उनकी शालाओं को पब्लिक स्कूलों के बराबर की सुविधाएं न दो, बस ओ.बी.सी का तमगा लगाये किसी भी बंदे को, भले वो मुँह में चांदी का चम्मच लिये हो बंदरबाँट में रेवड़ीयाँ बाँट दो। बीस साल बाद फिर हिसाब लगाना और देखना कि असमानता तो बनी हुई है, तब तक राजीव या मुलायम या मायावती के बेटे सिंहासन संभालने के लायक हो जायेंगे। तो किसी चुनाव के शुभ अवसर पर फिर खोल देना बोतल का मुँह!