कोला में पेस्टीसाईड की उपस्थिति पर बोतल में तूफान कई बार उठे हैं। कोला निर्माता और दोषारोपण करने वाली सी.एस.ई दोनों पर ही संदेह किया जा रहा है। निरंतर के नये अंक में अफ़लातून और अर्जुन स्वरूप की इसी विषय पर एक बहस प्रकाशित हुई। उनके विचारों को पढ़ते समय यह सोचा था कि अपने विचार भी ज़रूर लिखुंगा, अंक में तो समयाभाव के कारण यह संभव न हो सका, अतः आज यह प्रयास।

सच कहूँ तो इस मुद्दे पर मेरा निजी रवैया डांवाडोल रहा है और मुझे दोनों पक्षों के ही रवैये में सुधार की ज़रूरत दिखती है। कोला निर्माताओं के सारी आपत्तियों को दरकिनार कर दिये व्यक्तव्य, कि हमारा सीईओ या ब्रेंड प्रमोट करने वाला नामी सितारा यह बेखटके पीता है इसलिये इससे कोई नुकसान नहीं है, को तो मैं सीधे खारिज करता हूँ। बैंसन एंड हैजेज़ का निर्माता सिगरेट पीता है यह कह देने भर से यह बात तो नहीं नकारी जा सकती कि धूम्रपान से कैंसर हो सकता है। यह तो बेवकुफाना सा तर्क है। पर इन्हीं विज्ञापनों में जिन गुणता नियंत्रण प्रक्रियाओं को दिखाया जा रहा है उससे कम से कम यह तो साबित होता है कि सी.एस.ई का वार खाली नहीं गया।

मेरी दृष्टि में एक मुख्य मुद्दा है मानकों के बारे में स्पष्टता लाने का। मानक दरअसल क्या हैं, भारत के लिये कौन सा मानक लागू है और किसी विदेशी मानक से इनकी तुलना संभव है या नहीं, यह बात साधारण नागरिक के तौर पर मेरे पल्ले तो नहीं पड़ती। इतना तो पता चला है की यूरोपिय संघ (ई.यू) के मानक पानी जैसी वस्तु के लिये तो काफी ऊंचे है, इन्हें एस्पीरेशनल मानक कहा जाता है, साफ शब्दों में कहें तो ऐसे मानक जिनका होना बहुत ही अच्छा पर जिनका वाकई लागू हो पाना बेहद मुश्किल। सचाई यह है कि भले ही ये मानक एस्पीरेशनल हों, वे आदर्श नहीं है क्योंकि इनके परिपालन के मामले में वे स्वयं कोताही बरतते हैं। ये मानक आयातित व घरेलू उत्पादों के लिये खासा भेदभाव करते हैं और आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कठोर रवैया किन उत्पादों के साथ अपनाया जाता होगा। हाँ यह संदेह तो काफी हद तक सही लगता है कि सी.एस.ई ने कोला में संदूषण स्तर की तुलना पानी से की, न कि दूध जैसे किसी उत्पाद से, ताकी अंतर भारी निकले और सनसनी ज़्यादा फैले।

एक अन्य पक्ष है मीडिया की सारे घटनाक्रम में भुमिका। यह सारा कांड सी.एस.ई बनाम पेप्सी कोक या सी.एस.ई बनाम एमएनसी का रूप देकर परोसा जाता रहा है खबरों पर। दिये की तूफ़ान से लड़ाई की उपमायें दी जाती रही हैं। पर हमें शायद सही स्थिति का पता ही नहीं क्योंकि सी.एस.ई की रपट तो कोई पढ़ने से रहा। कोला भक्त यह आरोप लगाते हैं कि एनजीओ आखिरकार इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं। सरकारी लैब तो सब आंकड़े ठीकठाक बताते हैं। तथ्य यह है कि 2003 और 2006 दोनों ही सालों में, जब ये विवाद उभरा, सी.एस.ई ने केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बात ही नहीं की बल्कि कई स्थानीय ब्राँड को भी निशाने पर लिया। यह छवि कि एनजीओ इन्हें निशाना बनाकर पैसे ऐंठते हैं मिडिया की ही निर्मित छवि है और यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पैसे दरअसल कौन बना रहे होंगे।

पर मुझे यह बात भी कोरी बकवास लगती है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी षड़यंत्र के तहत विकासशील देशो में दोयम दर्जे के उत्पाद बेचती हैं या जानबूझकर खराब क्वालिटी के उत्पाद बनाकर बेचती हैं। यह सच होता तो विदेशी सैलानी कोला के बजाय यहाँ का पानी बेखटके पीते। कोक की तुलना में क्या हमारे फुटपाथ पर बिकते गन्ने का रस, पानीपुरी और मौसंबी रस ज़्यदा सुरक्षित और शुद्ध होंगे? मुझे तो ऐसा नहीं लगता।

कोला और जंक फूड के स्वास्थ्य पर हो रहे असर की भी बात उठती रहती है। यहाँ भी सारा ध्यान बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही केंद्रित होता है। अगर जाँच की बात हो तो सभी की हो। क्या हमारे काके दा ढ़ाबे में 4 दिनों चलती ग्रेवी या लालाजी के यहाँ महीनों पुरानी मिठाईयों या मक्खियों से पटे इलाकों में बिकते वड़ा पाव या जलेबी वाले ऐसी जाँच के दायरे में लाये जायेंगे? अफलातून जी ने मुझे संसद सदस्य वीरेंद्र कुमार का स्वास्थ्य मंत्री को लिखा खुला पत्र अग्रेषित किया था। इसमें मोटापे, डायबीटिज़, दंतक्षय जैसी कितनी ही स्वास्थ्य समस्याओं के लिये कोला को ज़िम्मेवार बताया गया है। यह काफी बढ़ा चढ़ा कर की गई बात लगती है। जब ये तर्क दिया जाता है कि दूध सब्जियों से भी तो सेहत को नुकसान संभव है तो कहा जाता है कि कोला तो शुन्य पोषण उत्पाद है, दूध से कुछ तो पोषण मिलता है। हास्यास्पद तर्क है यह।

कोला पर रोक लगाने की बात करना गलत नहीं अगर ये उत्पाद वाकई हानिकारक हों, यह साबित करना तो टेड़ी खीर होगी, पर उसी साँस में यह भी तो कहें कि मदिरा, सिगरेट और तंबाखू जैसे उत्पादों पर, जिनके स्वास्थ्य पर होते खराब असर को हमें साबित नहीं करना है, मुक्कमल रोक लगे। अगर यह न हो सके तो फिर दोगलापन सिर्फ सरकार और इन बहुराष्ट्रीय का ही नहीं है, उन संस्थाओं और व्यक्तिओं का भी है जो केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही आरोप मढ़ते रहते हैं और अपने गिरहबाँ में झांकते तक नहीं।