कथादेश में अविनाश के कॉलम पर अपनी राय लिखी पर समय पर पोस्ट करने से चूक गया। चुंकि अब कमेंटियाकर कुछ लाभ नहीं अतः इस पोस्ट का ही नाजायज लाभ उठाया जा रहा है।

Which way to go?

नारद काँड के बाद से बारंबार चिट्ठाजगत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात उठ रही हैं। बेवजह ही सही पर चिंताजनक बात है, क्योंकि ब्लॉग खुली खरी बात कहने के ही माध्यम हैं। पर मुझे इन नारों में केवल संघर्ष का ही पुट दिखता है। नारद के विवाद के समय ये गीकी और साधारण चिट्ठाकारों का संघर्ष था (जो कुछ कुछ अब भी जारी है, मसलन “इन्होंने मंटो और चुगताई को नहीं पढ़ा इसलिये अश्लील भाषा की पहचान में अक्षम हैं”) और भड़ास के बाद ये साधारण ब्लॉगारों और अभिजात्य ब्लॉगरों में लट्ठम लट्ठ बन चुका है। और इस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है।

कुछ ऐसा ज़रूर हुआ है जिससे चिट्ठाकारी में एक तरह की “छुआछूत की पैठ बन पड़ी है, या जातिय महासभायें बन रही हैं”, पर भाषा का मसला कृपया ना उछालें, छूआछूत इस पर तो कतई नहीं है। ये पृथकतावाद है नारद वालों और मुहल्ले वालों के बीच। “नारद वाले” कौन हैं ये कोई नहीं जानता पर इनसे “पोस्ट मुहल्ला” ब्लॉगियों को सख्त परहेज़ है। मुहल्ले पर चढ़े ब्लॉगरोल को देख कर आप “जात बाहर” चिट्ठाकारों का अंदाज़ा लगा सकते हैं, इस सूची में मेरा चिट्ठा तो खैर होने लायक ही नहीं था पर फुरसतिया, जीतेंद्र और रवि रतलामी का भी नहीं है। और फुरसतिया तो गीकी तमगा भी नहीं लगाते।

तो अविनाश और नीलिमा भड़ास के समर्थन में उठ खड़े हुये हैं ये नकारते हुये कि ना ना कर के भी मेरे जैसे अनेक भड़ास नियमित रूप से पढ़ते हैं। पढ़ने के बाद ज़ाहिर तौर पर प्रतिक्रिया अलग अलग होती है। नीलिमा ने बद और बदतर में बदतर को चुनना उचित समझा है, पहले गीकी, और अब कथित अभिजात्य चिट्ठाकारों को मुँह चिढ़ाने के लिये। अविनाश शायद भड़ास से जुड़े लोगों की संख्या से प्रभावित हैं, ऐसी ही संख्या वे मुहल्ला पर देखना चाहते थे, और यहाँ भी वे सत्य नकार रहे हैं कि संख्या में अंतर ज्यादा क्यों है, उन्होंने कभी इंटरनेट पर पॉर्न और इरॉटिक लेखन के बाजार पर तव्वजोह नहीं दिया। उन्हें भड़ास एक नया आंदोलन लग रहा है। पर ये आंदोलन एनडीटीवी या उन अखबारों में क्यों नहीं है जिनसे अविनाश या भड़ास के लेखक जुड़े हैं? अलहदा माध्यम? संपादकीय नियंत्रण? अविनाश ब्लॉग की परिभाषा तो ठीकठाक लिखते हैं, “संपादकीय पाश से मुक्ति”, तो ये मुक्ति कैसी है? भड़ास की भाषा होली वाली है तो क्या हम इंटरनेट पर रोज होली मनायें, क्योंकि ये हमारा घर, आफिस या हमारा समाज नहीं है? और अगर रोज़ मनाना है तो मेरा सवाल परंपरागत मीडिया से जुड़े इन लोगों से ये है कि हम आपके मीडिया में इस परीक्षण को क्यों ना दुहरायें? आप के अपने आफिशीयल मीडिया, या खरी कहें तो रोजी रोटी के ज़रिये, में ये “साहस” कहाँ और क्यों छुपा बैठा है? कथनी और करनी में ये अंतर क्यों?

इसके बावजूद आप भड़ास पर यशवंत के संपादकीय नियंत्रण के पुट देख सकते हैं, और ये कोई कमी नहीं है बल्कि एक जिम्मेवार प्रकाशन का परिचायक है। “नीलिमा को भड़ास की हेडमिस्ट्रेस बनाने” के हास्य में ये इच्छा छुपी है कि भड़ास में कीचड़ कम न हो क्योंकि ये हमारे मन में छुपे शूकर के यदा कदा लोट लगाने में सहायक होता है। ये अजीब जिद है, किसी श्याने स्कूली बच्चे जैसी जो अपने उपद्रवी साथी को खिड़की के काँच तोड़ने को उकसाये सिर्फ इसलिये कि उससे ये पत्थर उछाला नहीं जाता। इच्छा यही है तो मैं वाकई हिन्दी पॉर्न ब्लॉग का इंतज़ार करुंगा।

क्या मुझे आप बुद्धिजीवियों को ये बार बार समझाना होगा कि जहाँ कोई औपचारिक नियामक, कोई सेंसर नहीं है या हो नहीं सकता वहाँ तो सेल्फ सेंसरशिप या स्वनियामन और भी ज़रूरी हो जाता है। इसमें कोई गला घोंटने वाली बात नहीं है, ये वैसी ही बात है कि जब ड्राइंगरूम में देर शाम मित्रों और जाम के साथ खुली छूट बात हो रही हो तो पत्नी और बच्चे को दूसरे कमरे में भेज दिया जाता है। ये उनके अधिकारों की सुरक्षा की बात है, जैसा किसी ने लिखा था कि “आप की लहराती छड़ी की स्वतंत्रता की हद वहाँ खत्म हो जाती है जहाँ मेरी नाक शुरु होती है”।

मुझे लगता है कि ये तबका ये सोचता है कि पहले मुहल्ले और फिर भड़ासियों के लेखन से इंटरनेटिय लेखन को “कल्चर शॉक” लगा है। ये बात निहायत हास्यास्पद है क्योंकि अव्वल तो ब्लागिंग के पहले नेट पर हिन्दी में पर्याप्त लेखन था ही नहीं और दूसरे, कि इंटरनेट पर पॉर्न तब से है जब से लोग इंटरनेट क्या है ये जानने लगे। इस लेखन से कोई शॉक वॉक किसी को नहीं लगा, जब रिक्शे और सब्ज़ी वाले हमारी पत्नियों के गुजरते बेपरवाह माँ भैन करते हैं तो वे इसे अनुसुना कर चलते जाने की आदि हैं। भड़ास भी करेगा तो जिसे पढ़ना है पढ़ेगा जिसे अनसुना करना है करेगा। पर जिस तरह हम अपनी बहन और पत्नी को कलारी के नज़दीक से न गुजरने की सलाह देते हैं वही सलाह हम भड़ास के मामले में भी देने लगेंगे। इतनी सी बात है। यूट्यूब ग्राफिक विडियो संपादित कर देता, हटा देता है, मेटाकैफे उन्हें सॉफ्ट पॉर्न के स्तर तक जाने देता है। अलग अलग मंच है, अलग अलग आचारनीति। क्या यूट्यूब पर आजादी का हनन हो रहा है? ये साबित करना चाहते हैं कि ये नया आंदोलन लाये हैं, पर मेरा मानना है कि ये कोई नीयो-ब्लॉगिंग नहीं है, क्योंकि हिन्दी ब्लॉगिंग ही नीयो है। अभी तो ये दिशायें तलाश रहा है, फैल सिकुड़ कर आकार ले रहा है तो किस पैमाने पर माप रहे हैं आप इसे? जैसे जैसे लेखन बढ़ रहा है इसकी छटा भी निखर रही है। किस लेखन को कैसा पाठक मिले ये आप क्यों तय करते हैं? नारद नहीं दिखाता भड़ास की पोस्ट, न दिखाये, जिसे पढ़ना होगा सीधे ब्लॉग पर पढ़ लेगा। आप घर में मुजरा क्यों देखना चाहते हैं, मुजरा जहाँ होता है वहाँ जाकर देखें। कौन रोकता है?

अप्रेल 2004 में लिखी एक पोस्ट में मुझे “साले” शब्द लिखने में भी संकोच हो रहा था। आज शायद अपशब्द भी बेखटके लिख सकूं। ये महज़ तीन साल के विकास(?) का प्रतिफल है। अविनाश को जो भाषा होली वाली लगी वो एक समय पर मुझे अनूप शुक्ल के ब्लॉग की लगी थी जब उन्होंने शुरुवात की थी अपने चिट्ठे की। यह और कुछ नहीं इवाल्विंग चिट्ठाकारी का स्वरूप है। जब मामला ही विचाराधीन है तो अभी इस पर फैसले कैसे सुनाये जा सकते हैं?