थोड़ी सी धूल मेरी धरती की मेरे वतन की,
थोड़ी सी खुशबू बौराई सी मस्त पवन की,
थोड़ी सी धौंकनी वाली धक‍धक‍ धक‍धक‍ धक‍धक‍ सांसें,
जिनमें हो जुनूं जुनूं, हो बूँदे लाल लहू की।

अरे भैया प्रसून हम तो आपको एडमैन टर्न्ड लिरिसिस्ट समझ बैठे पर आप तो कुछ और ही निकले। धूल से धौंकनी बनी सांसे? जिनमें बूँदे लाल लहू की? भैया ये तो शहर में परदूशन के मारे फेंफड़ें की बीमारी से तिल तिल मरते किसी शहरी की कहनी लगती है। देसप्रेम का जज्बा किधर है भैये? आप कवि हो की फेफड़ों के डाक्टर?