चिट्ठाजगत में जो बदलाव आया है उसे साफ “प्री मुहल्ला” और “पोस्ट मुहल्ला” के रूप में देखा जा सकता है। प्री मुहल्ला, ज्यादातर चिट्ठाकार तकनीकी लोग, जो ज्यादा समय आनलाईन रहते थे, चिट्ठाकारी करते थे। जब उन्होंने ये समुदाय बनते देखा तो साथ हो लिये, दूसरों के मदद करने हेतु जो सीखा उसको लिपीबद्ध किया, आपरेटिंग सिस्टम और यूनीकोड के झमेले समझने की कोशिश की। ये उस समय ज़रूरी भी था। पोस्ट मुह्ल्ला छपे हुये, पेशेवर लेखकों और पत्रकारों का आगमन हुआ। उन्होंने बहस के नये और सार्थक मुद्दे उठाये हैं, उनकी कलम समृद्ध और अनुभवी है, उनकी नज़र ज़मीनी है और उनके पास जानकारी खंगालने के संसाधन हैं। इस दौर में रवीश मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में से रहे हैं, उन्होंने इस मीडीयम को सबसे बेहतरीन तरीके से समझा है, उन्होंने चिट्ठे पर वो लिखा जो वो टीवी पर कह नहीं सकते, जो उनका मानवीय पक्ष उजागर करता हो, जिस बात पर वे उद्वेलित या शंकित हों, उन्होंने वो लिखा जो उनके मन में चल रहा है, उन्होंने ईमानदारी से चिट्ठाकारी करना सिखाया, उनकी चिट्ठाकारी खरी है।

चिट्ठाई में लेखन में जो विविधता, निखार और परिपक्वता दिखती है उसमें रवीश, अनामदास, प्रमोद, अभय जैसे अनेकानेक लोगों का योगदान है। पर चिट्ठाजगत में पत्रकारों और पेशेवर लेखकों के हल्ले में छपित लेखकों की इन फाईटिंग छुपी नहीं रही, पुरस्कार और बाईलाईन की लालसा चिट्ठाकारी में भी टपक पड़ी छपास की महामारी। नेम कॉलिंग की बुरी प्रथा शुरु हो गई। नारद पर अपनी पोस्ट दिखने की लालसा बाईलाईन की लालसा या छपास नहीं तो क्या है? आप अकेले नहीं हैं, अनेकों चिट्ठाकार इस के शिकार रहे हैं और रहेंगे, पर आप तो “अनुभवी” लेखक थे ना, हम अमेच्योर के स्तर पर क्योंकर उतरे आप? नारद की किटी पार्टी में शामिल होने का लोभ तो सभी को है लेकिन जब नशे में धुत्त कुछ लोगों को बाउंसर्स ने बाहर फेंक दिया तो आप ने कहा कि इनको तो पार्टी मनानी ही नहीं आती, होश आया तो माफी भी माँगी, और जब आपको कुछ दूसरी पार्टियों के शामियाने खड़े दिखाई तो आपने फिर “मेरा वाला एग्रीगेटर” बनाने की जिद शुरु कर दी। आपका वाला एग्रीगेटर किस को लोलीता के चित्र और गाली गलौज छापने की “स्वतंत्रता” देता है ये देखना बाकी है। मेरा विचार यही है, सेंसर बुरा है पर रेगुलेशन ज़रूरी है।

नारद के बारे में उठी बहसों में एक मुख्य पहलू तकनीकी है और इससे कई गैर तकनीकी लोग “नारद…तकनीक की दुनिया के “कुछ” सक्षम” लोगों का है कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं। “चिट्ठे की फीड चिट्ठाकार की भी बपौती नहीं है“, आप सरासर गलत हैं! चिट्ठे की फीड चिट्ठे के मसौदे को पस्तुत करने का एक “प्रेज़ेटेशन लेयर” मात्र है, वो आपके चिट्ठे का ही अंश है, उसके प्रकाशक आप ही हैं और फीड के प्रति आपकी जिम्मेवारी चिट्ठे से कम नही। हर फीड सार्वजनिक भी नहीं होती, आप का बस हो तो आप फीड को पासवर्ड प्रोटेक्ट कर सकते हैं, आप चाहें तो उसमें विज्ञापन डालें, चाहें तो फीडबर्नर जैसे उत्पादों से उसका रंगरूप बदल दें। ये फीड एक “सर्विस प्रोड्यूसर” है, आपकी सेवा ग्रहण करने न करने का अधिकार पाठकों और एग्रीगेटर्स को है। आप फीड प्रकाशित करते हैं तो उसे पढ़ना होगा यह कहना वैसा ही बालहठ है जैसा ये कहना कि समीर कहें कि मेरी कविता आपको सुननी ही होगी।

मुझे लगता है कि मुहल्ला जैसे कुछ चिट्ठों का रुख अब मुद्दों पर विवाद खड़ा करना ही रह गया है। टिप्पणियों को “संपादक के नाम पत्र” की शैली में छापना, अपनी टिप्पणी न छापे जाने पर चिट्ठाकार की लानत मलानत करना, ये सब मूल चिट्ठाकारी के पैमानों में ही फिट नहीं बैठते ये मैं पहले ही कह चुका हूँ पर साँप्रदायिकता के बाद साहित्य की बहसों में भी उसी माहौल को देखकर यह कहना अनुचित नहीं लगता। हो सकता है आप कहें कि ये काफी हाउस में चल रहा संभ्राँत आड्डा नहीं है तो क्या आप फेंटा कसकर दंगल कराने के लिये चिट्ठाकारी में उतरे हैं? बातें बुद्ध की और काम युद्ध का! मुहल्ला और कई ऐसे चिट्ठे, चाहे वो संघी हों या संघविरोधी, ट्रॉलिंग पर उतारू हैं ये स्वीकारने से मैं पीछे नहीं हटुंगा। और ऐसे में “समानांतर” एग्रीगेटर के माँग उन्होंने रखी, और कुछ लोगों ने मौके का फायदा उठा कर 20 दिन में विकल्प बना कर हिसाब भी चुकता कर दिया, मैं इसे गुटबाजी के प्रयत्न के अलावा कुछ नहीं मानुंगा। नारद ने माईक्रोसॉफ्ट की शैली में अन्य उत्पादों को बाजार में आने से रोक तो नहीं रखा। नारद के पहले भी एग्रीगेटर थे और साथ में भी रहे और बाद में भी आयेगें, सर्वज्ञ का यह पृष्ठ देखें। सवाल ये है कि बिना किसी आर्थिक मदद के, उपलब्ध साधनों के साथ बने उत्पाद को सर्वगुणसंपन्न तो नहीं बनाया जा सकता, ये व्यावहारिक दिक्कते हैं। ये उम्मीद करना बेमानी है कि 750 फीड को नारद हर 20 मिनट क्रॉल करे, और कितने ही हैं जो ये न समझने हुये शिकायत करते हैं कि मेरी पोस्ट अभी तक नहीं दिखी, अरे क्या आपकी पोस्ट को जीतू नकेल डाल रोके रखे हैं? सॉफ्टवेयर किसी से भेद नहीं करता। और स्पष्ट कहता हूं कि कोई चिट्ठाजगत या ब्लॉगवाणी भी ये नहीं कर पायेगा अगरचे वो स्पाईवेयर बेचकर या विज्ञापन लगाकर कुछ कमाई न करे और लोड बैलेंसिंग जैसे मुद्दों को ध्यान में रख कर एक स्केलेबल सिस्टम की रचना न कर सके। मुझे लगता है कि ये सारे विवाद देखकर निश्चित ही कोई कमर्शियल एग्रीगेटर मैदान में उतरेगा, पर मुझे नहीं लगता कि नारद की तरह किसी को भी सामुदायिक प्रयास के रुप में पहचाना जायेगा।

इस मुद्दे पर “नारद की किटी पार्टी” और “अनिवासी भारतियों का शगल” जैसे जुमले उछाले गये हैं। क्षमा करें, हिन्दी चिट्ठाजगत इन किसी भी विशेषणों से टैग नहीं किया जा सकता। नारद की तटस्थतता के सबसे बड़ा उदाहरण यही है कि संजय बैंगाणी के साथ साथ मैं और अनूप भी किसी न किसी तौर पर जुड़े हैं। मुझे और अनूप दोनों को दुख है कि चिट्ठों को बैन करने के नारद के कुछ फैसलों में हमारी राय नहीं मानी गई। कितने एनआरआई हैं हिन्दी चिट्ठाजगत में? साँप्रदायिकता के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले आप पहले चिट्ठाकार नहीं थे, नुक्ताचीनी पर ये, ये, ये और इस जैसे अनेक लेख तब लिखे गये जब आप यहाँ नहीं थे। मानता हूँ बहस नहीं हुई पर सभ्य बहस तो आपने भी नहीं की। आपने अपना विरोध करने वालों का नाम ले लेकर उन्हें साँप्रदायिक पुकारा, आपने उनकी साफगोई को नहीं सराहा।

अफ़लातून जी ने गीकी अहंकार की बात की और मैं उससे काफी हद तक सहमत हूं। चिट्ठाजगत में कई ऐसे होंगे जिन्हें जाल पर हिन्दी की बढ़त के आन्दोलन में हिस्सेदारी मिलने से दंभ हुआ होगा, किस क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। मुझे नहीं लगता कि चंद ब्लॉगर सराय, रविकांत, रवि रतलामी, स्व. धनंजय, आलोक जैसे अनेकानेक लोगों व संस्थाओं के हिन्दी भाषा के लिये किये गये कार्य की किंचितमात्र बराबरी भी कर सके। जाल पर हिन्दी की इस्तेमाल की जड़ें तैयार थीं जब हिन्दी ब्लॉगिंग की शाखायें पनपीं। मैंने देसीपंडित के लिये एक लेख में लिखा था कि मैं भाग्यशाली हूं की जब हिन्दी ब्लॉगिंग की कोंपले फूट रही थीं तो मैं वहाँ मौजूद था। ब्लॉगिंग से गीकों का जुड़ाव पूर्णतः लेखन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, इनके साहित्य व हिन्दी लेखन के बारे में जानकारी की तुलना करना भी जायज नहीं, ये गीक शायद इसलिये जुड़े हैं क्योंकि इन्हें भाषा की इस बढ़त का तकनीकी पक्ष आकर्षित करता है, वे नये टूल व उत्पाद बनाना चाहते हैं, वे तकनीक को सामान्य भाषा में प्रस्तुत कर उसे व्यापक करना चाहते हैं। पर सूझबूझ पर लोहा लेने के लिये कोई इंटरनेट पर समय ज़ाया करने आता हो ये मुझे नहीं लगता।

यह जानते हुये कि परउपदेश कुशल बहुतेरे, मैं यह लिखना चाहता हूं कि नारद में मुझे क्या गलत लगता रहा है। मेरे विचार से पहली गलती तो यही हुई कि नारद की प्रक्रियायें खुली रखीं गईं, और जीतू हर किसी को व्यक्तिगत रूप से जवाब देते रहे। उन्हें तब नारद के सुप्रीमो होने का आनंद मिल रहा था। इसका खामियाजा भी उन्होंने भुगता जब लोग चैट पर उनका आना दूभर कर देते थे। मेरे सुझाव पर काफी जानकारियाँ नारद ब्लॉग से दी जाने लगीं पर मुझे लगता है कि हिन्दीब्लॉग्स डॉट कॉम के तरह ये सब नैपथ्य में चलना चाहिये। मुझे यह भी नहीं लगता कि ब्लॉग चयन की प्रक्रिया में किसी कमेटी की दरकार है। किसी भी ब्लॉग को हटाने की बात का विरोध मैंने पहले भी किया है और करता रहूंगा। कारण ये कि ब्लॉग की कोई पोस्ट आपत्तिजनक हो सकती है, हर पोस्ट ऐसी होगी ये ज़रूरी तो नहीं। आपत्तिजनक पोस्ट्स को हटाने की जगह “फ्लैग” करने की सुविधा होनी चाहिये, फ्लैग्ड लेखों का केवल शीर्षक दिखायें। अगर फ्लैग्ड लेखों को कोई पाठक पढ़ता है तो वो स्वयं समझे। यूट्यूब पर फ्लैग्ड विडियो देखने के लिये पंजीकृत होना पड़ता है और अपनी उम्र बतानी पड़ती है। नारद पर वर्गीकरण बेहद ज़रूरी है और ये मुखपृष्ठ के ट्रैफिक को भी तंदरुस्त रख सकता है। मुझे मालूम नहीं कि नारद के उपयोग के आंकड़े देखे गये कि नहीं पर मुझे एग्रीगेटर्स पर एक पखवाड़े से पुरानी पोस्ट खोजने की सुविधा हास्यास्पद लगती है। मुझे नहीं लगता कि 2 प्रतिशत पाठक भी इस सुविधा का प्रयोग करते होंगे. गूगल का अपना ब्लॉग खोज इंजन है जिसे कस्टमाईज़ भी किया जा सकता है। हैरानी होती है कि नारद पर तीन साल का डेटा रखा है। अगर व्यावसायिक प्लान न हो तो ये सफेद हाथी की तरह बंधा पड़ा रहेगा और निरंतर के डेटा की तरह कोई और बेचारी सामग्री डिलीट हो जायेगी 😉

मेरा यह मानना है कि हिन्दी चिट्ठों की आतिशी बढ़त देखते हुये एग्रीगेटर्स को बदलना होगा, कोई भी व्यस्त व्यक्ति दिन में 150 पोस्ट पूरी पढ़ कर टिपियाने की कल्पना नहीं कर सकता, सोचिये समीर लाल इतनी टिप्पणियाँ कैसे लिख पायेंगे भले वो पोस्ट बिना पढ़े ही टिप्पणी लिखें। और एग्रीगेटर अगर सारी सामग्री ही परोसता हो तो ये पोस्ट वाकई पढ़े भी नहीं जायेंगे, खासतौर पर समरी पोस्ट देने वाले फीड के पोस्ट। एग्रीगेटर्स को सामग्री फिल्टर करने की सुविधा देनी होगी, ये वैसा ही है कि गूगल समाचार पृष्ठ पर आप खोज करें और आपकी खोज के परिणाम फीड के रुप में मिले, आपकी क्वैरी के मुताबिक आपको हर पल ताज़ा नतीज़े मिलते रहते हैं। तो ज़रूरत मेमट्रैकर्स व देसीपंडित व चिट्ठाचर्चा जैसे फिल्टर जालस्थलों की है जो आपको चुनी हुई या/और पर्सनलाईज़्ड सामग्री दे कर समय बचा सकें। चिट्ठाचर्चा को ऐसे रूप में देरसवेर ढलना ही होगा।

जाते जाते मुहल्ला युग की एक तारीफ किये बिना नहीं रह सकता। “पोस्ट मुहल्ला” जितने व्यावसायिक लेखक मैदान में उतरें है उन्होंने ब्लॉगजगत को मुद्दों पर बहस करना और बेतक्कलुफ़ी से लिखना ज़रूर सिखाया है। आज से कुछ बरस पहले की बात होती तो पंगा न लेने के बात पर मैं ये पोस्ट कभी लिखता ही नहीं। मन की मन में ही पड़ी रहती। ब्लॉगजगत में जीवन का अक्स उतरने के बाद से इसमें मानवीयता बढ़ी है, सब कुछ करणजोहर कि फिल्म जैसा बढ़िया बढ़िया नहीं है, कड़वाहट भी है, बहस भी है, प्यार भी तकरार भी, ब्लॉगर मीट से लोग व्यक्तिगत रूप से भी जानने पहचानने लगे हैं, सामाजिकता का ये माहौल पहले से काफी परिष्कृत है। और विषयों को जो विस्तार मिला वो तो अभूतपूर्व है ही।