एग्रीगेटरों के बहाने से
चिट्ठाजगत में जो बदलाव आया है उसे साफ “प्री मुहल्ला” और “पोस्ट मुहल्ला” के रूप में देखा जा सकता है। प्री मुहल्ला, ज्यादातर चिट्ठाकार तकनीकी लोग, जो ज्यादा समय आनलाईन रहते थे, चिट्ठाकारी करते थे। जब उन्होंने ये समुदाय बनते देखा तो साथ हो लिये, दूसरों के मदद करने हेतु जो सीखा उसको लिपीबद्ध किया, आपरेटिंग सिस्टम और यूनीकोड के झमेले समझने की कोशिश की। ये उस समय ज़रूरी भी था। पोस्ट मुह्ल्ला छपे हुये, पेशेवर लेखकों और पत्रकारों का आगमन हुआ। उन्होंने बहस के नये और सार्थक मुद्दे उठाये हैं, उनकी कलम समृद्ध और अनुभवी है, उनकी नज़र ज़मीनी है और उनके पास जानकारी खंगालने के संसाधन हैं। इस दौर में रवीश मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में से रहे हैं, उन्होंने इस मीडीयम को सबसे बेहतरीन तरीके से समझा है, उन्होंने चिट्ठे पर वो लिखा जो वो टीवी पर कह नहीं सकते, जो उनका मानवीय पक्ष उजागर करता हो, जिस बात पर वे उद्वेलित या शंकित हों, उन्होंने वो लिखा जो उनके मन में चल रहा है, उन्होंने ईमानदारी से चिट्ठाकारी करना सिखाया, उनकी चिट्ठाकारी खरी है।
चिट्ठाई में लेखन में जो विविधता, निखार और परिपक्वता दिखती है उसमें रवीश, अनामदास, प्रमोद, अभय जैसे अनेकानेक लोगों का योगदान है। पर चिट्ठाजगत में पत्रकारों और पेशेवर लेखकों के हल्ले में छपित लेखकों की इन फाईटिंग छुपी नहीं रही, पुरस्कार और बाईलाईन की लालसा चिट्ठाकारी में भी टपक पड़ी छपास की महामारी। नेम कॉलिंग की बुरी प्रथा शुरु हो गई। नारद पर अपनी पोस्ट दिखने की लालसा बाईलाईन की लालसा या छपास नहीं तो क्या है? आप अकेले नहीं हैं, अनेकों चिट्ठाकार इस के शिकार रहे हैं और रहेंगे, पर आप तो “अनुभवी” लेखक थे ना, हम अमेच्योर के स्तर पर क्योंकर उतरे आप? नारद की किटी पार्टी में शामिल होने का लोभ तो सभी को है लेकिन जब नशे में धुत्त कुछ लोगों को बाउंसर्स ने बाहर फेंक दिया तो आप ने कहा कि इनको तो पार्टी मनानी ही नहीं आती, होश आया तो माफी भी माँगी, और जब आपको कुछ दूसरी पार्टियों के शामियाने खड़े दिखाई तो आपने फिर “मेरा वाला एग्रीगेटर” बनाने की जिद शुरु कर दी। आपका वाला एग्रीगेटर किस को लोलीता के चित्र और गाली गलौज छापने की “स्वतंत्रता” देता है ये देखना बाकी है। मेरा विचार यही है, सेंसर बुरा है पर रेगुलेशन ज़रूरी है।
नारद के बारे में उठी बहसों में एक मुख्य पहलू तकनीकी है और इससे कई गैर तकनीकी लोग “नारद…तकनीक की दुनिया के “कुछ” सक्षम” लोगों का है कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं। “चिट्ठे की फीड चिट्ठाकार की भी बपौती नहीं है“, आप सरासर गलत हैं! चिट्ठे की फीड चिट्ठे के मसौदे को पस्तुत करने का एक “प्रेज़ेटेशन लेयर” मात्र है, वो आपके चिट्ठे का ही अंश है, उसके प्रकाशक आप ही हैं और फीड के प्रति आपकी जिम्मेवारी चिट्ठे से कम नही। हर फीड सार्वजनिक भी नहीं होती, आप का बस हो तो आप फीड को पासवर्ड प्रोटेक्ट कर सकते हैं, आप चाहें तो उसमें विज्ञापन डालें, चाहें तो फीडबर्नर जैसे उत्पादों से उसका रंगरूप बदल दें। ये फीड एक “सर्विस प्रोड्यूसर” है, आपकी सेवा ग्रहण करने न करने का अधिकार पाठकों और एग्रीगेटर्स को है। आप फीड प्रकाशित करते हैं तो उसे पढ़ना होगा यह कहना वैसा ही बालहठ है जैसा ये कहना कि समीर कहें कि मेरी कविता आपको सुननी ही होगी।
मुझे लगता है कि मुहल्ला जैसे कुछ चिट्ठों का रुख अब मुद्दों पर विवाद खड़ा करना ही रह गया है। टिप्पणियों को “संपादक के नाम पत्र” की शैली में छापना, अपनी टिप्पणी न छापे जाने पर चिट्ठाकार की लानत मलानत करना, ये सब मूल चिट्ठाकारी के पैमानों में ही फिट नहीं बैठते ये मैं पहले ही कह चुका हूँ पर साँप्रदायिकता के बाद साहित्य की बहसों में भी उसी माहौल को देखकर यह कहना अनुचित नहीं लगता। हो सकता है आप कहें कि ये काफी हाउस में चल रहा संभ्राँत आड्डा नहीं है तो क्या आप फेंटा कसकर दंगल कराने के लिये चिट्ठाकारी में उतरे हैं? बातें बुद्ध की और काम युद्ध का! मुहल्ला और कई ऐसे चिट्ठे, चाहे वो संघी हों या संघविरोधी, ट्रॉलिंग पर उतारू हैं ये स्वीकारने से मैं पीछे नहीं हटुंगा। और ऐसे में “समानांतर” एग्रीगेटर के माँग उन्होंने रखी, और कुछ लोगों ने मौके का फायदा उठा कर 20 दिन में विकल्प बना कर हिसाब भी चुकता कर दिया, मैं इसे गुटबाजी के प्रयत्न के अलावा कुछ नहीं मानुंगा। नारद ने माईक्रोसॉफ्ट की शैली में अन्य उत्पादों को बाजार में आने से रोक तो नहीं रखा। नारद के पहले भी एग्रीगेटर थे और साथ में भी रहे और बाद में भी आयेगें, सर्वज्ञ का यह पृष्ठ देखें। सवाल ये है कि बिना किसी आर्थिक मदद के, उपलब्ध साधनों के साथ बने उत्पाद को सर्वगुणसंपन्न तो नहीं बनाया जा सकता, ये व्यावहारिक दिक्कते हैं। ये उम्मीद करना बेमानी है कि 750 फीड को नारद हर 20 मिनट क्रॉल करे, और कितने ही हैं जो ये न समझने हुये शिकायत करते हैं कि मेरी पोस्ट अभी तक नहीं दिखी, अरे क्या आपकी पोस्ट को जीतू नकेल डाल रोके रखे हैं? सॉफ्टवेयर किसी से भेद नहीं करता। और स्पष्ट कहता हूं कि कोई चिट्ठाजगत या ब्लॉगवाणी भी ये नहीं कर पायेगा अगरचे वो स्पाईवेयर बेचकर या विज्ञापन लगाकर कुछ कमाई न करे और लोड बैलेंसिंग जैसे मुद्दों को ध्यान में रख कर एक स्केलेबल सिस्टम की रचना न कर सके। मुझे लगता है कि ये सारे विवाद देखकर निश्चित ही कोई कमर्शियल एग्रीगेटर मैदान में उतरेगा, पर मुझे नहीं लगता कि नारद की तरह किसी को भी सामुदायिक प्रयास के रुप में पहचाना जायेगा।
इस मुद्दे पर “नारद की किटी पार्टी” और “अनिवासी भारतियों का शगल” जैसे जुमले उछाले गये हैं। क्षमा करें, हिन्दी चिट्ठाजगत इन किसी भी विशेषणों से टैग नहीं किया जा सकता। नारद की तटस्थतता के सबसे बड़ा उदाहरण यही है कि संजय बैंगाणी के साथ साथ मैं और अनूप भी किसी न किसी तौर पर जुड़े हैं। मुझे और अनूप दोनों को दुख है कि चिट्ठों को बैन करने के नारद के कुछ फैसलों में हमारी राय नहीं मानी गई। कितने एनआरआई हैं हिन्दी चिट्ठाजगत में? साँप्रदायिकता के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले आप पहले चिट्ठाकार नहीं थे, नुक्ताचीनी पर ये, ये, ये और इस जैसे अनेक लेख तब लिखे गये जब आप यहाँ नहीं थे। मानता हूँ बहस नहीं हुई पर सभ्य बहस तो आपने भी नहीं की। आपने अपना विरोध करने वालों का नाम ले लेकर उन्हें साँप्रदायिक पुकारा, आपने उनकी साफगोई को नहीं सराहा।
अफ़लातून जी ने गीकी अहंकार की बात की और मैं उससे काफी हद तक सहमत हूं। चिट्ठाजगत में कई ऐसे होंगे जिन्हें जाल पर हिन्दी की बढ़त के आन्दोलन में हिस्सेदारी मिलने से दंभ हुआ होगा, किस क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। मुझे नहीं लगता कि चंद ब्लॉगर सराय, रविकांत, रवि रतलामी, स्व. धनंजय, आलोक जैसे अनेकानेक लोगों व संस्थाओं के हिन्दी भाषा के लिये किये गये कार्य की किंचितमात्र बराबरी भी कर सके। जाल पर हिन्दी की इस्तेमाल की जड़ें तैयार थीं जब हिन्दी ब्लॉगिंग की शाखायें पनपीं। मैंने देसीपंडित के लिये एक लेख में लिखा था कि मैं भाग्यशाली हूं की जब हिन्दी ब्लॉगिंग की कोंपले फूट रही थीं तो मैं वहाँ मौजूद था। ब्लॉगिंग से गीकों का जुड़ाव पूर्णतः लेखन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, इनके साहित्य व हिन्दी लेखन के बारे में जानकारी की तुलना करना भी जायज नहीं, ये गीक शायद इसलिये जुड़े हैं क्योंकि इन्हें भाषा की इस बढ़त का तकनीकी पक्ष आकर्षित करता है, वे नये टूल व उत्पाद बनाना चाहते हैं, वे तकनीक को सामान्य भाषा में प्रस्तुत कर उसे व्यापक करना चाहते हैं। पर सूझबूझ पर लोहा लेने के लिये कोई इंटरनेट पर समय ज़ाया करने आता हो ये मुझे नहीं लगता।
यह जानते हुये कि परउपदेश कुशल बहुतेरे, मैं यह लिखना चाहता हूं कि नारद में मुझे क्या गलत लगता रहा है। मेरे विचार से पहली गलती तो यही हुई कि नारद की प्रक्रियायें खुली रखीं गईं, और जीतू हर किसी को व्यक्तिगत रूप से जवाब देते रहे। उन्हें तब नारद के सुप्रीमो होने का आनंद मिल रहा था। इसका खामियाजा भी उन्होंने भुगता जब लोग चैट पर उनका आना दूभर कर देते थे। मेरे सुझाव पर काफी जानकारियाँ नारद ब्लॉग से दी जाने लगीं पर मुझे लगता है कि हिन्दीब्लॉग्स डॉट कॉम के तरह ये सब नैपथ्य में चलना चाहिये। मुझे यह भी नहीं लगता कि ब्लॉग चयन की प्रक्रिया में किसी कमेटी की दरकार है। किसी भी ब्लॉग को हटाने की बात का विरोध मैंने पहले भी किया है और करता रहूंगा। कारण ये कि ब्लॉग की कोई पोस्ट आपत्तिजनक हो सकती है, हर पोस्ट ऐसी होगी ये ज़रूरी तो नहीं। आपत्तिजनक पोस्ट्स को हटाने की जगह “फ्लैग” करने की सुविधा होनी चाहिये, फ्लैग्ड लेखों का केवल शीर्षक दिखायें। अगर फ्लैग्ड लेखों को कोई पाठक पढ़ता है तो वो स्वयं समझे। यूट्यूब पर फ्लैग्ड विडियो देखने के लिये पंजीकृत होना पड़ता है और अपनी उम्र बतानी पड़ती है। नारद पर वर्गीकरण बेहद ज़रूरी है और ये मुखपृष्ठ के ट्रैफिक को भी तंदरुस्त रख सकता है। मुझे मालूम नहीं कि नारद के उपयोग के आंकड़े देखे गये कि नहीं पर मुझे एग्रीगेटर्स पर एक पखवाड़े से पुरानी पोस्ट खोजने की सुविधा हास्यास्पद लगती है। मुझे नहीं लगता कि 2 प्रतिशत पाठक भी इस सुविधा का प्रयोग करते होंगे. गूगल का अपना ब्लॉग खोज इंजन है जिसे कस्टमाईज़ भी किया जा सकता है। हैरानी होती है कि नारद पर तीन साल का डेटा रखा है। अगर व्यावसायिक प्लान न हो तो ये सफेद हाथी की तरह बंधा पड़ा रहेगा और निरंतर के डेटा की तरह कोई और बेचारी सामग्री डिलीट हो जायेगी 😉
मेरा यह मानना है कि हिन्दी चिट्ठों की आतिशी बढ़त देखते हुये एग्रीगेटर्स को बदलना होगा, कोई भी व्यस्त व्यक्ति दिन में 150 पोस्ट पूरी पढ़ कर टिपियाने की कल्पना नहीं कर सकता, सोचिये समीर लाल इतनी टिप्पणियाँ कैसे लिख पायेंगे भले वो पोस्ट बिना पढ़े ही टिप्पणी लिखें। और एग्रीगेटर अगर सारी सामग्री ही परोसता हो तो ये पोस्ट वाकई पढ़े भी नहीं जायेंगे, खासतौर पर समरी पोस्ट देने वाले फीड के पोस्ट। एग्रीगेटर्स को सामग्री फिल्टर करने की सुविधा देनी होगी, ये वैसा ही है कि गूगल समाचार पृष्ठ पर आप खोज करें और आपकी खोज के परिणाम फीड के रुप में मिले, आपकी क्वैरी के मुताबिक आपको हर पल ताज़ा नतीज़े मिलते रहते हैं। तो ज़रूरत मेमट्रैकर्स व देसीपंडित व चिट्ठाचर्चा जैसे फिल्टर जालस्थलों की है जो आपको चुनी हुई या/और पर्सनलाईज़्ड सामग्री दे कर समय बचा सकें। चिट्ठाचर्चा को ऐसे रूप में देरसवेर ढलना ही होगा।
जाते जाते मुहल्ला युग की एक तारीफ किये बिना नहीं रह सकता। “पोस्ट मुहल्ला” जितने व्यावसायिक लेखक मैदान में उतरें है उन्होंने ब्लॉगजगत को मुद्दों पर बहस करना और बेतक्कलुफ़ी से लिखना ज़रूर सिखाया है। आज से कुछ बरस पहले की बात होती तो पंगा न लेने के बात पर मैं ये पोस्ट कभी लिखता ही नहीं। मन की मन में ही पड़ी रहती। ब्लॉगजगत में जीवन का अक्स उतरने के बाद से इसमें मानवीयता बढ़ी है, सब कुछ करणजोहर कि फिल्म जैसा बढ़िया बढ़िया नहीं है, कड़वाहट भी है, बहस भी है, प्यार भी तकरार भी, ब्लॉगर मीट से लोग व्यक्तिगत रूप से भी जानने पहचानने लगे हैं, सामाजिकता का ये माहौल पहले से काफी परिष्कृत है। और विषयों को जो विस्तार मिला वो तो अभूतपूर्व है ही।
देबाशीष जी,
आपने काफी विस्तृत पोस्ट लिखी है. सारी बातों के बारे में अपने विचार रखना शायद मेरे लिये मुश्किल होगा. बस इतना ही कहूंगा कि बदला उतारने के लिये कोई भी सृजनात्मक कार्य करना संभव नहीं है. ब्लागवाणी बनाने के पीछे हमारा ध्येय जाल पर अपनी भाषा का फैलाव बढ़ाना है, और कुछ नहीं.
आपके सुझाव मुझे बहुत ही जबर्दस्त लगे. मैं चाहूंगा की ब्लागवाणी पर हम आपके सुझाव अपना पायें.
ब्लागवाणी के बारे में लिखने के लिये धन्यवाद.
बढ़िया लिखा है – बहुत सी नारदीय बातों को आपने स्पष्ट किया है. शायद लोगों की आंखें खुलें जो बिना सोचे विचारे गंभीर आरोप लगाते हैं और अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं. पर ये बात भी सही है कि पोस्ट मोहल्ला हिन्दी चिट्ठाजगत् को फायदा ही हुआ है. लोग जानने लगे हैं कि हिन्दी चिट्ठाजगत भी कोई चीज है. और बहसों से ज्यादा ही जानने लगे हैं – बहस यहाँ फ़ायदे मंद रहे हैं, कुछ खास चिट्ठों के लिए तो खासकर!
एक बात अवश्य साफ करना चाहूँगा – ब्लॉगवाणी की परिकल्पना मैथिली जी के मन में बहुत पहले से थी – तब से जब से उन्होंने कैफ़े हिन्दी बनाया था. यह पोस्ट मोहल्ला ईजाद नहीं है. हाँ, बैक-बर्नर पर था, जो इस समय हिलोरें मार कर ऊपर आ गया. 🙂
हाह… थक गया, पर पूरा पढ़ा। इस तरह की बातें लिखकर आपने अपनी समग्र दृष्टि का ही परिचय का दिया है। नये चिट्ठाकारों को संभवत: इससे अपनी चिट्ठाकारी को दिशा देने में मदद मिले।
इस मुद्दे पर पहली बार सार्वजनिक टिप्पणी कर रहा हूँ…
इस बेहद सधे हुए लेख की तारीफ किये बिना नहीं रहा जा सकता.कामना करुंगा कि इस पोस्ट के बाद ये मुद्दा अब समाप्त माना जाये और उत्तर/प्रति- उत्तर के लोभ से बचा जाये.इस मुद्दे का अच्छा पक्ष मेरी नजर में यह रहा कि मेरे जैसे कुछ ब्लॉगरों का हिन्दी चिट्ठाजगत से पारिवारिक मोह भंग हो गया और ऎसे लोग इन विवादों के इतर रचनात्मक कार्यों में दिल लगाने लगे.नये ऎग्रीग्रेटर्स का आना भी शुभ संकेत ही है..भले ही 20 दिन में आये या 20 महीने में.. नये ऎग्रीग्रेटर नारद और नारद से जुड़े लोगों को भी आत्ममंथन का समय देंगे/दे रहे हैं..और हम हिन्दी में कुछ नया और स्तरीय रच पायेंगे..” हिन्दी है तो हम हैं ना कि हम हैं तो हिन्दी है..”
इन्ही कामनाओं के साथ ..काकेश
इत्ती लम्म्बी… मगर पूरी पढ़ी. बहुत सही बातें लिखी है. कहने को ज्यादा कुछ नहीं है, जिन्हे या फिर हम सब को जो समझना है समझ लेना चाहिए.
ऐसा लेख लिखने के लिए आप को साधुवाद देबाशीष.. आप ने बहुत संतुलित लिखा.. मेरी गलतियों की ओर भी इशारा किया.. ज़रूर गलतियां हुई होंगी..किससे नहीं होती.. पर वो गलतियां ही हैं.. मैं यह स्वीकारने के स्थिति में नहीं पहुँचा हूँ..
अभी मैं कुछ हड़बड़ी में हूँ.. बाद में आराम से पढ़कर ठीक से समझूँगा आप की बात..
ऐसे सुलझे हुए लेख की काफी समय से प्रतीक्षा थी। जब भी आरोप प्रत्यारोप का सिलसिसा शुरु हुआ है जज़्बात का विवेक से अधिक इस्तेमाल हुआ है।
आपकी इस बात से भी मैं सहमत हूँ।
नारद और हिन्दी चिट्ठाजगत को सही दिशा ले जाने का समय सही है। चिट्ठाजगत वैसा ही होगा जैसे चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वाले होंगे। बहरहाल आपके सभी सुझाव ध्यान देने योग्य हैं।
सुलझा और संतुलित लेख। बधाई।
देखिये आपने यहा काफ़ी कुछ कहा है और उन्मे काफ़ी बाते आपकी सही भी है,शायद आप मुह्ल्ले के न्यायालय को या हिंदुओ को क्रमश: लगातार गालिया देने को अच्छा मानते हो ,नारद अच्छा मानता हो ,जरूरी नही सब को ही अच्छा लगे. हमे नही लगा,हम ने विरोध किया,
दूसरी बात अगर हम ने कुछ भी अपने चिट्ठे पर छापा और नारद द्वेश वश उसे ४/६ घंटे बाद दिखाये (केवल मेरे ही चिट्ठे को ,बाकी सब समय पर आ रहे हॊ) तो अगर मै नारद को इस कष्ट से आजाद करता हू ,कोई विरोध का विषय नही है,अब अगर नारद नये चिट्ठो को भी लेना बंद करता है की जीतू छुट्टी पर है ये सब क्या है जरा सोचे,हिंदी ब्लोग चला जा रहा है नारद से अच्छा और दादागिरी से मुक्त ,तो आप काहे चिढते है,अगर आज १५ दिन मे एक एग्रीगेटर बन कर आ गया है तो आप काहे लाल पीले काले नीले होते है जी.ये धमकी भी तो नारद ही शिकायत करने पर रोज देता था कि अपना बना लो,अब लोगो ने काम किया तो जलन क्यो,जीतू जी की अब चिट्ठो के भगवान जैसी हालत नही रही तो उसके जिम्मेदार वही है ,हर स्मय धौस देना हम ने ये किया वो किया क्या था ये सब.हिंदी ब्लोग से तो हमने कभी नही सुना,भाइ अधजल गगरी छलकत जाये भरी गगरिया चुप्पे जाये सुना है ना,थोथा चना,बाजे घना भी सुना ही होगा,अब दूसरो पर जब भी उंगली उठाओ ध्यान रखना बाकी चार किधर होती है,बाकी तो आप ज्यादा पढे लिखे है हमसे अब आप को ये अनपढ क्या समझायेगा.
यद है ना देबाशीश जी मेरे चिट्ठे पर आपकी तिल्मिलाती प्रतिक्रिया, जो आपने हिंदुओ को गरैयाने पर कभी भी नही की 🙂 जरा यहा भी पढे “खरी खरी सुन नारद तुम” पसंद आयेगी 🙂
बेहतरीन विश्लेषण. बेहद वस्तुनिठ. सभी सुझाव काबिलेगौर हैं. देबाशीष आपको बहुत-बहुत बधाई!
देवाशीष,
पहले बहुत अच्छा लिखा, साधुवाद…..आदि आदि की औपचारिकताओं को पूरा मानें…ये एक जरूरी लेख जो या तो आप ही लिख सकते थे या शायद रवि रतलामी। गनीमत है अमित या जीतू ने कोशिश नहीं की 🙂
आपने कई बातों पर अपना पक्ष रखा है हम दम साधे अमित, जीतू जैसे लोगों की राय की प्रतीक्षा कर रहे हैं और अनूपजी की भी। हम भी शायद कुछ कहें –देखते हैं, शायद एक पोस्ट की दरकार है।
पर एक बात जो यहीं जरूरी है- “चिट्ठे की फीड चिट्ठाकार की भी बपौती नहीं है”, इस प्रकार की बात मैंने ही कही थी पर आपने उसे अधूरा उठाया जिससे वह स्वाभाविक रूप से ‘सरासर गलत’ हो गया- चिट्ठों की फीड यदि चिट्ठे सार्वजनिक हैं (मित्रों, परिजनों के लिए लिखे जा रहे निजी पत्र नहीं हैं) तथा उनकी फीड सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है- तो ये कतई चिटृठाकार की बपौती नहीं हैं।
बात को इतने साफ सुथरे तरीके से कह सकने के लिए पुन: बधाई
आप जितने अच्छे तकनीकवेत्ता हैं, उतने ही तार्किक भी। आप जैसे लोगों का होना हिंदी ब्लॉगिंग के लिए अच्छा है। हालांकि मुझे आपके कई तर्कों पर एतराज़ है… लेकिन ये कहानी फिर कभी!
हमने विपुलजी व मैथिलीजी दोनों से ही पूछा पर दोनों ही ने कहा कि इससे व्यवसायिक सरोकार नहीं हैं- कमाई कहीं और से कर लेंगे। हमें तो लगता है ये व्यवसायिक होते तो अच्छा था पर…ये स्पाईवेयर बेचने का क्या लफड़ा है कोई बताए.
देबाशीष ,
पत्रकारीय समझ के साथ निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए आभार । अब यह उम्मीद की जाए कि सलाहकार के नाते आप ‘नारद’ के ‘मूँछों की लड़ाई’ का पटाक्षेप कराने में भी यह समझदारी और निष्पक्षता सहयोगी होगी। ऐतिहासिक पोस्ट।
बहुत अच्छे तरीके से आपने अपनी बात रखी। पर बहुत देरी से, जब वाकई इस पोस्ट की जरूरत थी, तब लिखी होती तो शायद आज हालात यह नहीं होते, जो उपर की टिप्प्णी में नजर आते हैं।
साधूवाद…..
वाह!!
साधुवाद!!
अच्छा विश्लेषण किया है दा। इसे पढ़कर कम से कम अब लोग नारद पर विवाद करने से पहले विचारेंगे।
सारी बातों से सहमत हूं । दरअसल दुनिया का कोई भी क्षेत्र तोहमतों और खीचमताम से अलग नहीं है । चूंकि एग्रीगेटर एक मंच है, एक माध्यम है जो चिट्ठों के प्रवाह को दिशा देता है या कहें कि इकट्ठा करके सब तक पहुंचाता है, ये एक जिम्मेदारी का काम है । लेकिन ऐसे किसी भी एग्रीगेटर के लिए तोहमतों से बचना मुमकिन नहीं है । चिट्ठाजगत का हालिया दौर हम सबको बहुत कुछ सिखा गया है और उम्मीद है कि हम उन ग़लतियों से सबक़ लेंगे, जो हो चुकीं । पर अब बेहतरी के लिए उन्हें दोहराने से हरगिज़ बचना ही होगा ।
बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया आपने इस समग्र वाकये का। खैर समय अपनी गति से चलता रहता है, आने वाले वक्त में इस सब से सीख लेकर कुछ सकारात्मक परिवर्तन अवश्य होंगे।
ब्लॉग जगत के परिदृश्य का सम्यक विश्लेषण! तनिक विलंब से लेकिन कुछ महत्वपूर्ण बातों पर अपना नज़रिया रखते हुए आपने एक जरूरी हस्तक्षेप किया है। हालांकि कहीं-कहीं आपकी राय से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ, मसलन यह कि नए एग्रीगेटरों के अस्तित्व में आने को मौके का फायदा उठाए जाने के कोशिश के रूप में देखना। जबकि आपको इन परियोजनाओं की जानकारी, मेरे ख्याल से, पहले से ही थी।
हिन्दी चिट्ठाकारी में ‘मोहल्ला एंड कंपनी’ के आने से जो उल्लेखनीय मोड़ आया है, उसे आपने सही रेखांकित किया है। कुछ भिन्न अर्थ में इस बात को मैंने भी पहले रखा था, लेकिन मैं अब भी इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूं कि चिट्ठाकारी की धारा में उनके सामूहिक और संगठित पदार्पण के बाद से चिट्ठा जगत में बहस के क्षितिज का गुणात्मक विस्तार या सामाजिक माहौल का कोई परिष्कार हुआ है। हां, यहां हलचल जरूर काफी बढ़ गई है, जैसा कि किसी मेले में अचानक भीड़ का रेला उमड़ आने पर होता है, या जैसा कि नदियों में अचानक बरसाती पानी के उमड़ आने पर होता है। फिर भी, जैसा कि मेले में किसी पुराने बिछड़े साथी के मिलने पर बहुत खुशी होती है, या जैसा कि बाढ़ के गुजर जाने के बाद कई बार भूमि को उर्वरता का वरदान मिल जाता है, मोहल्ला अभियान ने भी अभय जी, प्रमोद जी, रवीश जी और चंद्रभूषण जी जैसे कुछ दमदार चिट्ठाकार हमें दिए, इसके लिए उसका आभार माना जाना चाहिए।
सब बात तो हम अपनी भी नहीं मानते, फिर आपकी कहां से मानेंगे.. पर इस नाज़ुक मोड़ पर अपनी बात कहने का आपका तरीका काबिले-तारीफ़ है..
दुबारा पढ़ने के बाद कुछ असहमतियां होने के बावजूद लेख और अच्छा लगा.. असहमति के बिन्दु मोहल्ले और दूसरे एग्रीगेटर्स के प्रति आप की टिप्पणी से सम्बंधित है.. पर सहमति के बिन्दु इतने ज़्यादा हैं कि फिर फिर आप को धन्यवाद.. हमारी समझ आप को पढ़ कर निखरी है..
बहुत अच्छा लिखा। विस्तार से। यह सही है कि नारद की प्रक्रियायें खुली रखीं गईं, और जीतू हर किसी को व्यक्तिगत रूप से जवाब देते रहे। यह एग्रीगेटर के लिहाज से अपरिपक्वता का काम था। खासकर तब और इसका नुकसान हुआ जब एक सधी हुयी प्रवक्ता वाली भाषा का प्रयोग करने के बजाय ‘अनौपचारिक सुप्रीमो’ वाली भाषा का इस्तेमाल हुआ। लेकिन इस सबसे बहुत कुछ सीखने को मिला जो आगे काम आयेगा।
एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि आमतौर पर चिट्ठों पर बैन के होने के बावजूद यह ब्लाग मेरी सहमति से बैन हुआ था।
आगे ब्लाग एग्रीगेटर में सुझाव पर अमल तकनीकी दिग्गज करेंगे।
बहुत दिन बाद इतना विस्तार से लिखा गया लेख पढ़ा और यह सुखद आश्चर्य का विषय था कि यह कहीं से नीरस नहीं लगा। बहुत अच्छा लगा। बधाई!:)
पिछली बार सोचा था बात खत्म हो गयी लेकिन अब लगता है कि शुरू ही हुई है, एग्रीगेटर के लिये बहुत सही कहा है खासकर नारद का ढांचा बदलने के लिये
अपनी राय जताने के लिये सभी टिप्पणीकारों का शुक्रिया!
अरूण: मेरी तल्ख टिप्पणी भी याद है और खेद व्यक्त करते हुये उसे वापस लेना भी। पर आपने अपनी न पोस्ट वापस ली न ही वाहियात चित्र हटाये। यही हमारी वैचारिक सोच का अंतर है, आप पंगेबाजी करने के लिये चिट्ठाकारी में उतरे, मैं नुक्ताचीनी करने। गलतियाँ स्वीकार कर उन्हें सुधारने का प्रयास ही मानवता के अब तक टिके रहने का कारण है शायद। जिन भले लोगों की भलमनसाहत पर दुनिया टिकी है उस पर जल्द ही एक पोस्ट लिखने वाला हूं, पढ़ियेगा।
मैंने लिखा था कि मेरी सोच यही है कि ईश्वर ने इंसान को नहीं बल्कि इंसान ने ईश्वर को बनाया। हम सब हाड़माँस के बने हैं, भौगोलिक अंतरों के कारण हमारे रंग अलग हुये पर रक्त का रंग वही है। और शुक्र है कि आज भी एक मुसलमान का खून किसी घायल हिन्दू की जान बचाने के लिये चढ़ाया जा सकता है। हमें एक दूसरे से नफरत करने के हज़ार कारण मिल सकते हैं पर सचाई ये है कि दुनिया अब भी मुहब्बत पर ही चल रही है, नेताओं और धर्मगुरुओं के नफरत का ज़हर पिलाने की लाख कोशिशों के बावजूद।
मैंने हिन्दुओं या मुसलमान को गरियाने की बात का विरोध नहीं किया, अभिव्यक्ति के लिये ही तो चिट्ठाकारी में उतरे हैं, विरोध किया इज़हार के तरीके पर, विरोध करने वाले को चुप कराने की कोशिशों पर, मुद्दों की बजाय व्यक्ति पर प्रहार करने की नीति पर। जैसा की मैंने लिखा कि सभ्य बहस और पंगेबाज़ी में काफी अंतर है। नेट पर ये अनेकों जगह चलता है, इंटरनेट आखिरकार है तो समाज का ही अक्स, पर इसकी निंदा हर जगह होती है। आपसे जब मिलुंगा तो गले मिलकर टेबल पर बैठकर “पंगे” लेंगे 🙂
मेरे ख्याल से मेरे कटाक्ष से वस्तुस्थिति थोड़ी स्पष्ट हुई होगी। नहीं हुई तो ये है मेरा आकलन, ब्लॉगवाणी सबसे पहले कैफेहिन्दी के साथ चोर दरवाज़े से प्रविष्ट हुआ था और ये एग्रीगेटर तब यहाँ हुआ करता था। ये जनवरी 2007 की बात है, तो ब्लॉगवाणी 20 दिनों में नहीं तैयार हो गया (मैं यह नहीं कह रहा कि सिरिल जैसे अनुभवी प्रोग्रामर इसको 20 दिन में नहीं बना सकते थे। अगर वे LAMP चुनते तो प्लिग और ग्रेगेरियस जैसे डिग क्लोन मुफ्त मिलते हैं।)
और अज्ञातवास से वापस आने का अवसर क्यों और कैसे चुना गया ये छुपा नहीं है। अफ़लातूनजी ने न केवल निम्नलिखित बात लिखी बल्कि ब्लॉगवाणी के विमोचन की प्रथम घोषणा भी उन्होंने ही की। ब्लॉगवाणी का रिवाईवल दूसरों से क्या कहकर किया जा रहा था ये बताने के लिये उद्धत कर रहा हूँ
सृजनः हमारी इस विषय में पहले भी बात हो चुकी है। हम उन चिट्ठाकारों में सम्मिलित थे जो एक समय व्यावसायिक चिट्ठाकारी की बात कर रहे थे। जाहिर है कि चिट्ठाकारी से कमाई करने से हमें कोई एतराज़ नहीं। कोई जालस्थल अपना भविष्य सुदृढ़ करने के लिये आर्थिक पक्ष को मद्देनज़र रख कर चले ये बुद्धिमता की बात है। कैफेहिन्दी ने अपना मंतव्य शुरु में स्पष्ट न कर, बगैर अनुमति उन्हें प्रकाशित कर हमें अपनी राय बनाने का मौका दिया। वे व्यावसायिक तौर पर सॉफ्टवेयर व पुस्तकें बेचने वाली कंपनी के स्वामी हैं, यह मानना मुश्किल है कि वे कॉपीराईट के सिद्धाँतों से वाकिफ नहीं थे या उनका हित हिन्दी का ही भला करना रहा हो। ब्लॉगवाणी पर जिस मुफ्त टायपिंग टूल का विज्ञापन लगा है वो फ्रीवेयर नहीं एडवेयर है क्योंकि इसमें तमाम जगह कैफेहिन्दी और आईटीबिक्स की कड़ियाँ हैं। ये कथनी और करनी का अंतर है। ये बात कहने के लिये शायद मैथिली से व्यक्तिगत रूप से मिल चुके लोग धो डालें पर जो कहना था सो कह दिया।
मसिजीवीः मैंने तो अविनाश के कथादेश के लेख में कहे का ज़िक्र किया था (कड़ी अब जोड़ दी गई है), आपने भी कहा तो मुझे ज्ञात नहीं।
आप की यहाँ कही बात से सहमत नहीं हूं। चिट्ठा अगर सार्वजनिक है (चिट्ठे को पासवर्ड प्रोटेक्ट करना संभव है) तो उसकी फीड भी सार्वजनिक होती है। बात सही है। पर जिस प्रकार चिट्ठे का प्रकाशक लेखक है वैसे ही फीड का प्रकाशक भी वही है। फीड वो खुद नहीं बनाता, ब्लॉगवेयर बना लेता है, पर मसौदा तो उसी का लिखा होता है, उस पर से उसका प्रकाशनाधिकार कैसे कम हो जाता है? जिस तरह आप किसी ब्राउज़र से सार्वजनिक साईट देख पाते हैं उसी तरह किसी भी सार्वजनिक फीड को किसी भी न्यूज़रीडर से पढ़ सकते हैं। अगर जालस्थल या फीड पर पासवर्ड प्रोटक्शन है तो दोनों को ही पढ़ने के लिये आपको अपना प्रयोक्तानाम और कूटशब्द देना होगा।
फीड चिट्ठे का ही एक अवतार है, जैसे कि कोई पुस्तक ईबुक के रूप में भी बिक सकती है, पर दोनों पर मूल लेखक का प्रकाशनाधिकार रहता है और मसौदे का जिम्मवार वही होता है।
ओह..हम शायद अलग प्लेटफार्म पर कह गए…अधिकार का अर्थ आप प्रकाशनाधिकार ले रहे हैं…हमने उसे पढ़ सकने के माध्यम के रूप में कहा। मैं सहमत हूँ कि लिखे पर अधिकार (और जिम्मेदारी) लेखक/चिट्ठेकार की ही है, चाहे फीड से या अन्यथा। पर सार्वजनिक फीड को पढ़ने से रोकने का हक चिट्ठाकार को कम से कम तब तक तो नहीं ही है जब तक कि वह फीड को गैर सार्वजनिक न कर दे।
कथादेश में अविनाश ने ये बात मेरे उद्धरण से ही दी थी, यहॉं देखें.
एक सधा हुआ लेख। सन्तुलन के साथ अपना पक्ष रखा है। यह तो अप्रैल मे हमने भी अपने जनसत्ता वाले लेख मे कहा था कि नए फ़ीड एग्रीगेटर सामने आएन्गे और बाज़ार व मीडिया की इस पर नज़र पडेगी। सो ऐसा कुछ नही हुआ जिसका पूर्वानुमान न लगाया गया हो। चिट्ठाकारी का एक युग व्यतीत हो गया है। अभी बहुत कुछ घटित होना बाकी है। अन्तर्जाल जितना तेज़ है उतनी ही तेज़ गति से यहा दुनिया बदल जाती है।
इतना लम्बा लिखते हैं और उसपर पाण्डित्य पूर्ण टिप्पणियां. सरल सा बुलेट पॉइण्ट देता कुछ नहीं लिखा जा सकता.
कोई यह बतायेगा कि उक्त परिचर्चा का सार क्या है?
सुजाता: लंबा लेख था तो मैं मान सकता है कि आपने पूरा पढ़ा नहीं। आपने आने वाले समय का अनुमान लगाया था पर मैंने आपको ये बताया कि वर्तमान और भूत में भी एग्रीगेटर रहे हैं, जिसकी सर्वज्ञ पर सूची की कड़ी भी दी, जिनके बारे में आप जैसे लोगों, जो अखबारों में चिट्ठाकारी के बारे में ज्यादा लिखते हैं, को पता ही नहीं 🙂 हो हल्ला केवल नारद के नाम पर ही हुआ पर विकल्प के दरवाज़े तब भी खुले थे जब चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी नहीं आये थे। मंतव्य ये कि नारद की कोई मोनोपली नहीं थी।
ज्ञानदत्त जीः बहुत बुरा लगा कि आपने इस “ऐतिहासिक” पोस्ट को पढ़ने का मौका हाथ आकर भी गंवा दिया 😉 बहरहाल एक पंक्ति में इसका सार होना चाहिये Much Ado about an aggregator 🙂
इतनी लम्बि पोस पोस्टिंग लीखने मे तो बहुत दिन लगा होगा
जो मैं पत्रिकाओं में पढ़ रहा था वह अब साक्षात् समझ में आ गया !!